विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र हिन्दू धर्म का एक अत्यंत पवित्र और शक्तिशाली स्तोत्र है, जिसमें भगवान विष्णु के 1000 दिव्य नामों का वर्णन है। यह महाभारत के अनुशासन पर्व में भी मिलता है। इसे भीष्म पितामह ने सूर्य देव की उपस्थिति में युधिष्ठिर को बताया था, जब वे शरशय्या पर थे।
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📜 इसका महत्व
• यह मोक्ष और भक्ति को बढ़ाने वाला स्तोत्र माना गया है।
1. विश्वामित्र की तपस्या और महर्षि पद की प्राप्ति
शुनःशेप की रक्षा करने के बाद महर्षि विश्वामित्र ने फिर से कठोर तपस्या आरंभ कर दी। उन्होंने अनेक वर्षों तक घोर तप किया, जिससे प्रसन्न होकर ब्रह्मदेव ने उन्हें दर्शन दिए और कहा—
"हे विश्वामित्र! तुम्हारी तपस्या अत्यंत प्रभावशाली है। अब तुम 'महर्षि' कहलाओगे।"
ब्रह्मदेव ने यह भी कहा कि यद्यपि उन्होंने महर्षि पद प्राप्त कर लिया है, फिर भी वे 'ब्रह्मर्षि' तब तक नहीं बन सकते जब तक कि ऋषि वशिष्ठ उन्हें यह पद स्वीकार नहीं कर लेते।
जब विश्वामित्र अपनी तपस्या को और भी कठोर बनाने लगे, तो देवराज इंद्र को चिंता होने लगी।
उन्होंने सोचा कि यदि विश्वामित्र ने इतनी प्रचंड तपस्या जारी रखी, तो वे स्वर्ग को भी चुनौती दे सकते हैं।
इस कारण इंद्र ने अप्सरा मेनका को विश्वामित्र का तप भंग करने के लिए भेजा।
अप्सरा मेनका अत्यंत सुंदर और आकर्षक थी।
उसने अपने मधुर स्वर, मनोहर रूप, और कोमल हाव-भावों से विश्वामित्र का मन मोह लिया।
धीरे-धीरे वह उनके पास जाने लगी और अपनी सौंदर्य-माया से उन्हें रिझाने का प्रयास करने लगी।
विश्वामित्र, जो वर्षों से कठोर तपस्या में लीन थे, मेनका के मोहजाल में फँस गए।
विश्वामित्र ने मेनका के साथ कई वर्षों तक रमण किया और उनके प्रेम में बंध गए।
इस संबंध से एक कन्या 'शकुंतला' का जन्म हुआ, जो आगे चलकर राजा दुष्यंत की पत्नी बनीं और जिनके पुत्र भरत के नाम पर भारतवर्ष का नामकरण हुआ।
अनेक वर्षों के बाद, जब विश्वामित्र को अपनी तपस्या के भंग होने का आभास हुआ, तो उन्हें घोर पश्चाताप हुआ।
वे यह समझ गए कि इंद्र ने उनकी तपस्या को भंग करने के लिए यह योजना बनाई थी।
क्रोधित होकर उन्होंने मेनका को त्याग दिया और पुनः कठोर तपस्या का संकल्प लिया।
उन्होंने यह निश्चय किया कि वे अब अत्यंत कठिन तपस्या करेंगे और किसी भी प्रकार के मोह में नहीं पड़ेंगे।
मन पर नियंत्रण रखना आवश्यक है – विश्वामित्र जैसे महान तपस्वी भी मोह-माया के कारण भटक गए।
इंद्र का भय और ऋषियों की तपस्या – देवता सदैव ऋषियों की तपस्या से भयभीत रहते थे, क्योंकि तपस्या से ऋषियों को अपार शक्ति मिलती थी।
मोह का प्रभाव – मेनका के रूप में भोग-विलास ने विश्वामित्र की कठोर तपस्या को बाधित कर दिया।
पश्चाताप और सुधार – विश्वामित्र ने अपनी गलती को पहचाना और पुनः कठोर तपस्या का निश्चय किया।
कथा का संक्षिप्त सार
राजा हरिश्चंद्र और उनका यज्ञ
अयोध्या के इक्ष्वाकु वंशी राजा हरिश्चंद्र ने एक यज्ञ करने का निश्चय किया।
इस यज्ञ के लिए एक मनुष्य बलि की आवश्यकता थी, जिसे वे प्राप्त नहीं कर पा रहे थे।
वे इस समस्या को हल करने के लिए अपने गुरु वशिष्ठ मुनि के पास गए, लेकिन कोई समाधान नहीं मिला।
शुनःशेप का क्रय
राजा हरिश्चंद्र ऋचीक मुनि के पुत्र शुनःशेप को उनके माता-पिता से मूल्य देकर क्रय कर लेते हैं, ताकि उसे यज्ञ में बलि के रूप में अर्पित किया जा सके।
शुनःशेप को अत्यंत दुख हुआ और उसने देवताओं से प्रार्थना की कि कोई उसकी रक्षा करे।
विश्वामित्र की शरण में शुनःशेप
शुनःशेप जब अपने जीवन से निराश हो गया, तो वह तपस्वी महर्षि विश्वामित्र के पास पहुंचा।
उसने मुनि से विनती की कि वे उसकी रक्षा करें।
विश्वामित्र ने करुणावश उसकी रक्षा का प्रण लिया और उसे यज्ञ में बचाने का उपाय बताया।
यज्ञ में रक्षा का उपाय
विश्वामित्र ने शुनःशेप को देवताओं की स्तुति करने के लिए विशेष मंत्र बताए।
जब राजा हरिश्चंद्र ने यज्ञ में शुनःशेप को बलि के लिए प्रस्तुत किया, तो शुनःशेप ने उन मंत्रों का उच्चारण किया।
मंत्रों से प्रसन्न होकर देवता उपस्थित हुए और उसकी रक्षा की।
इस प्रकार, बलि देने की आवश्यकता समाप्त हो गई और राजा हरिश्चंद्र का यज्ञ भी सफलतापूर्वक पूरा हुआ।
विश्वामित्र की तपस्या और सिद्धि
इस घटना के बाद, महर्षि विश्वामित्र ने फिर से कठोर तपस्या आरंभ की।
उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर देवताओं और ब्रह्मर्षियों ने उन्हें सम्मान दिया।
इस प्रकार, विश्वामित्र एक महात्मा और महान तपस्वी के रूप में और भी प्रतिष्ठित हो गए।
वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के 61वें सर्ग में मुनि विश्वामित्र की तपस्या का वर्णन किया गया है। इस सर्ग में बताया गया है कि जब राजा त्रिशंकु को स्वर्ग में भेजने का प्रयास विफल हो गया और देवताओं ने उसे स्वर्ग से गिरा दिया, तब मुनि विश्वामित्र ने अपनी तपस्या को और भी कठोर बना लिया।
त्रिशंकु की घटना के बाद, विश्वामित्र अत्यंत क्रोधित और दुखी हो गए। वे सोचने लगे कि उन्हें अपनी तपस्या को और अधिक प्रबल बनाना होगा ताकि वे देवताओं के समान ही शक्ति प्राप्त कर सकें। इस उद्देश्य से वे पश्चिम दिशा की ओर चले गए और पवित्र पुष्कर तीर्थ में जाकर कठोर तपस्या करने लगे।
उन्होंने कई वर्षों तक कठोर व्रतों का पालन किया और घोर तप किया। इस तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी प्रकट हुए और विश्वामित्र से वरदान मांगने को कहा। विश्वामित्र ने उनसे ब्रह्मर्षि पद की याचना की, परंतु ब्रह्मा जी ने कहा कि यद्यपि वे महान तपस्वी बन चुके हैं, फिर भी उन्हें अभी ब्रह्मर्षि नहीं कहा जा सकता। इसके लिए उन्हें ऋषियों और विशेष रूप से वशिष्ठ ऋषि की मान्यता प्राप्त करनी होगी।
पुष्कर तीर्थ में कठोर तप – विश्वामित्र ने घोर तपस्या करके अपनी शक्ति को और बढ़ाया।
ब्रह्मा जी की कृपा – उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें महर्षि की उपाधि दी, लेकिन ब्रह्मर्षि नहीं माना।
वशिष्ठ ऋषि की मान्यता आवश्यक – ब्रह्मर्षि पद प्राप्त करने के लिए वशिष्ठ ऋषि की स्वीकृति अनिवार्य थी।
पुष्कर तीर्थ में तपस्यासर्ग की प्रमुख बातें
वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड - साठवां सर्ग: त्रिशंकु का यज्ञ और नूतन स्वर्ग की रचना
प्रस्तावना
राजा त्रिशंकु ने सशरीर स्वर्ग प्राप्ति की अभिलाषा से महर्षि विश्वामित्र का आश्रय लिया। अपने यज्ञीय बल और तपोबल से महर्षि ने त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेजा, किंतु देवराज इंद्र ने त्रिशंकु को वापस पृथ्वी की ओर भेज दिया। इससे क्रोधित होकर विश्वामित्र ने एक नए स्वर्ग की रचना का संकल्प किया, किंतु देवताओं के समझाने पर वे शांत हुए।
सर्ग का वर्णन
1. त्रिशंकु की अभिलाषा
राजा त्रिशंकु अपने गुरू वसिष्ठ के पास गए और उनसे सशरीर स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा प्रकट की। वसिष्ठ ने इसे असंभव बताते हुए मना कर दिया।
2. विश्वामित्र का संकल्प
वसिष्ठ के पुत्रों ने भी त्रिशंकु का उपहास किया, जिससे त्रिशंकु ने महर्षि विश्वामित्र का आश्रय लिया। विश्वामित्र ने त्रिशंकु की इच्छा पूरी करने का संकल्प लिया और यज्ञ की तैयारी की।
3. यज्ञ का अनुष्ठान
महर्षि ने यज्ञ आरंभ किया और अपने मंत्रबल से त्रिशंकु को स्वर्ग भेजा। त्रिशंकु जैसे ही स्वर्ग पहुँचे, इंद्र ने उन्हें नीचे धकेल दिया।
4. क्रोधित विश्वामित्र का नूतन स्वर्ग निर्माण
इंद्र के इस व्यवहार से क्रोधित होकर महर्षि ने अपने तपोबल से एक नए स्वर्ग की रचना प्रारंभ की। उन्होंने नए तारे, ग्रह, और आकाश मंडल की रचना की और त्रिशंकु को वहाँ स्थान दिया।
5. देवताओं का हस्तक्षेप और समझौता
देवताओं ने विश्वामित्र को स्तुति करते हुए समझाया कि सृष्टि का संतुलन बिगड़ जाएगा। महर्षि शांत हो गए, और त्रिशंकु को उनके बनाए नए स्वर्ग में ही स्थान मिला, किंतु वे सदैव उल्टे लटके रहेंगे।
उपसंहार
इस सर्ग से यह शिक्षा मिलती है कि महर्षि विश्वामित्र की दृढ़ संकल्प शक्ति अपार थी, किंतु सृष्टि के नियमों का पालन भी आवश्यक है। देवताओं के साथ समझौता कर महर्षि ने अपनी क्रोधाग्नि को शांति दी और संतुलन स्थापित किया।
वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के 59वें सर्ग में महर्षि विश्वामित्र द्वारा त्रिशंकु के यज्ञ की तैयारी का वर्णन किया गया है। इस सर्ग में महर्षि विश्वामित्र अपने पुत्रों और अन्य ऋषि-मुनियों को यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित करते हैं।
प्रसंग का सारांश:
1. यज्ञ का निश्चय: महर्षि विश्वामित्र राजा त्रिशंकु की इच्छा को पूर्ण करने के लिए एक महान यज्ञ का आयोजन करने का निश्चय करते हैं, जिससे त्रिशंकु अपने चांडाल रूप में ही स्वर्ग को प्राप्त कर सके।
2. पुत्रों को आज्ञा: महर्षि विश्वामित्र अपने पुत्रों को आदेश देते हैं कि वे यज्ञ के लिए आवश्यक सामग्री एकत्र करें और अन्य ऋषि-मुनियों को यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित करें।
3. ऋषि-मुनियों को निमंत्रण: विश्वामित्र के पुत्र विभिन्न आश्रमों में जाकर महात्मा, ऋषि, मुनि और ब्राह्मणों को यज्ञ में भाग लेने के लिए निमंत्रण देते हैं।
4. कुछ ऋषियों का विरोध: हालांकि, कई ऋषि-मुनि महर्षि वशिष्ठ के प्रति सम्मान के कारण इस यज्ञ में भाग लेने से इनकार कर देते हैं, क्योंकि वशिष्ठ के पुत्रों ने पहले ही त्रिशंकु को शाप दिया था।
5. विश्वामित्र का क्रोध: जब महर्षि विश्वामित्र को यह ज्ञात होता है कि कई ऋषियों ने यज्ञ में भाग लेने से मना कर दिया है, तो वे अत्यंत क्रोधित होते हैं।
6. पुत्रों को शाप: महर्षि विश्वामित्र अपने ही पुत्रों से अप्रसन्न होकर उन्हें शाप देते हैं कि वे सौ जन्मों तक ‘म्लेच्छ’ (असभ्य जाति) में जन्म लेंगे, क्योंकि उन्होंने अपने पिता के आदेश का पालन पूर्ण निष्ठा से नहीं किया।
7. यज्ञ की तैयारी: इसके बाद, महर्षि विश्वामित्र अपने तपोबल और अन्य सहयोगी ऋषियों की सहायता से यज्ञ की सभी तैयारियाँ पूरी करते हैं।
प्रसंग की शिक्षा:
• गुरु-आज्ञा का पालन: महर्षि विश्वामित्र का अपने पुत्रों को शाप देना यह दर्शाता है कि गुरु के आदेश का पालन करना अत्यंत महत्वपूर्ण होता है।
• दृढ़ संकल्प: विश्वामित्र का त्रिशंकु की इच्छा पूरी करने के लिए कठिन परिस्थितियों में भी अडिग रहना उनके दृढ़ निश्चय को दर्शाता है।
• शक्ति और संयम: यज्ञ के आयोजन में आने वाली बाधाओं का सामना करने के लिए संयम और शक्ति का संतुलन आवश्यक है।
• सदाचार और आदर: महर्षि वशिष्ठ के प्रति अन्य ऋषि-मुनियों का सम्मान यह सिखाता है कि सदाचार और परंपरा का पालन हमेशा वांछनीय होता है।
वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के 58वें सर्ग में राजा त्रिशंकु, महर्षि वशिष्ठ के पुत्रों और महर्षि विश्वामित्र के बीच एक महत्वपूर्ण घटना का वर्णन मिलता है।
प्रसंग का सारांश:
1. त्रिशंकु की इच्छा: इक्ष्वाकु वंश के राजा त्रिशंकु को अपने जीवित अवस्था में ही स्वर्ग जाने की तीव्र इच्छा होती है। वे इस यज्ञ को संपन्न कराने के लिए पहले महर्षि वशिष्ठ के पास जाते हैं।
2. वशिष्ठ का अस्वीकार: महर्षि वशिष्ठ त्रिशंकु की इस अनोखी और अस्वाभाविक इच्छा को धर्म के विरुद्ध मानते हैं और यज्ञ करने से मना कर देते हैं।
3. वशिष्ठ पुत्रों के पास जाना: त्रिशंकु वशिष्ठ के 100 पुत्रों के पास जाकर अपनी इच्छा पुनः व्यक्त करते हैं और यज्ञ करने का निवेदन करते हैं।
4. शाप का प्रकोप: वशिष्ठ के पुत्र अपने पिता के आदेश का उल्लंघन होते देख क्रोधित हो जाते हैं। वे त्रिशंकु को शाप देते हैं कि वह अपने क्षत्रिय धर्म से पतित होकर चांडाल (अत्यंत नीच) बन जाए।
5. चांडाल रूप में त्रिशंकु: वशिष्ठ पुत्रों के शाप से त्रिशंकु का शरीर तुरंत ही चांडाल के रूप में परिवर्तित हो जाता है। उसका रंग काला हो जाता है, शरीर मलिन हो जाता है, और उसके वस्त्र भी मैले हो जाते हैं।
6. विश्वामित्र की शरण में: चांडाल रूप में त्रिशंकु अत्यंत व्याकुल होकर महर्षि विश्वामित्र के पास पहुँचता है और अपनी समस्त व्यथा सुनाता है।
7. विश्वामित्र का आश्वासन: महर्षि विश्वामित्र त्रिशंकु की स्थिति देखकर दया करते हैं। वे उसे अपनी शरण में लेकर यह वचन देते हैं कि वे उसे उसके चांडाल रूप में ही स्वर्ग भेजेंगे और उसकी इच्छा को पूर्ण करेंगे।
प्रसंग की शिक्षा:
• यह प्रसंग धर्म, तप और शाप की शक्ति का परिचय कराता है।
• महर्षि विश्वामित्र का करुणा और सहायता भाव, साथ ही उनके दृढ़ संकल्प को दर्शाता है।
• त्रिशंकु की अपनी इच्छा के प्रति अडिगता और विश्वामित्र की शरण में जाने से यह भी संदेश मिलता है कि सच्ची शरण में जाने पर मार्ग प्राप्त हो सकता है।
वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के 57वें सर्ग में राजा विश्वामित्र के घोर तपस्या और ब्रह्मर्षि बनने के दृढ़ निश्चय का वर्णन मिलता है।
प्रसंग का सारांश:
1. तपस्या का आरम्भ: महर्षि वशिष्ठ के ब्रह्मदण्ड के आगे अपने सभी दिव्यास्त्रों की विफलता देखकर राजा विश्वामित्र को यह समझ में आ जाता है कि क्षत्रिय बल और दिव्यास्त्रों की शक्ति से ब्रह्मतेज पर विजय प्राप्त नहीं की जा सकती।
2. राजर्षि पद की प्राप्ति: राजा विश्वामित्र घोर तपस्या में लीन हो जाते हैं। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी प्रकट होते हैं और उन्हें ‘राजर्षि’ (राजा और ऋषि के गुणों से युक्त) पद से सम्मानित करते हैं।
3. ब्रह्मर्षि बनने की आकांक्षा: विश्वामित्र संतुष्ट नहीं होते, क्योंकि उनका लक्ष्य ‘ब्रह्मर्षि’ पद प्राप्त करना है, जो महर्षि वशिष्ठ के समान ही ब्रह्मज्ञान और तपस्या का सर्वोच्च स्तर होता है।
4. दृढ़ संकल्प: ब्रह्मा जी से केवल राजर्षि पद प्राप्त कर विश्वामित्र में और भी वैराग्य उत्पन्न होता है। वे निश्चय करते हैं कि जब तक वे ब्रह्मर्षि नहीं बन जाते, तब तक वे अपनी तपस्या जारी रखेंगे।
5. तपस्या की दिशा: इसके बाद, वे और भी कठोर तप करने का निश्चय करते हैं, जिससे वे अपने समस्त विकारों, क्रोध, अहंकार और सभी सांसारिक इच्छाओं का त्याग कर सकें।
प्रसंग की शिक्षा:
यह प्रसंग यह सिखाता है कि सच्ची आध्यात्मिक उन्नति के लिए केवल बाह्य शक्ति या यश पर्याप्त नहीं होता, बल्कि आंतरिक शुद्धता, संयम, और घोर तपस्या आवश्यक होती है। विश्वामित्र का ब्रह्मर्षि बनने का संकल्प उनकी आत्म-उन्नति और आत्म-साक्षात्कार की प्रबल इच्छा को दर्शाता है।
वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के 56वें सर्ग में महर्षि वशिष्ठ और राजा विश्वामित्र के बीच एक महत्वपूर्ण घटना का वर्णन मिलता है। इस प्रसंग में राजा विश्वामित्र अपने अहंकार और शक्ति के मद में महर्षि वशिष्ठ के ऊपर नाना प्रकार के दिव्यास्त्रों का प्रयोग करते हैं, किंतु महर्षि वशिष्ठ अपने ब्रह्मदण्ड (ब्रह्मा का दिया हुआ एक दिव्य दण्ड) के माध्यम से सभी अस्त्रों को निष्फल कर देते हैं।
प्रसंग का सारांश:
1. विश्वामित्र का आगमन: राजा विश्वामित्र महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में आते हैं और महर्षि के दिव्य कामधेनु गाय नन्दिनी को पाने की इच्छा व्यक्त करते हैं।
2. नन्दिनी का आग्रह: विश्वामित्र नन्दिनी को बलपूर्वक ले जाने का प्रयास करते हैं, लेकिन नन्दिनी अपनी दिव्य शक्तियों से विश्वामित्र के सैनिकों को पराजित कर देती है।
3. दिव्यास्त्रों का प्रयोग: राजा विश्वामित्र क्रोधित होकर महर्षि वशिष्ठ के ऊपर अपने समस्त दिव्यास्त्रों का प्रयोग करते हैं, जिनमें अग्नेयास्त्र, वरुणास्त्र, वायवास्त्र, पर्वतास्त्र, पाशुपतास्त्र, और अन्य अनेक शक्तिशाली अस्त्र शामिल होते हैं।
4. ब्रह्मदण्ड की शक्ति: महर्षि वशिष्ठ अपने हाथ में ब्रह्मदण्ड धारण करते हैं। ब्रह्मदण्ड से निकली ब्रह्मतेज की शक्ति के आगे सभी दिव्यास्त्र निष्क्रिय हो जाते हैं।
5. विश्वामित्र की पराजय: सभी अस्त्र विफल हो जाने पर राजा विश्वामित्र हताश हो जाते हैं और यह समझ जाते हैं कि क्षत्रिय बल से ब्रह्मतेज के आगे कुछ नहीं कर सकते।
6. राजा का संकल्प: इस घटना से प्रेरित होकर राजा विश्वामित्र अपने क्षत्रिय धर्म का त्याग कर तपस्या के माध्यम से ब्रह्मर्षि बनने का संकल्प लेते हैं।
प्रसंग की शिक्षा:
इस प्रसंग से यह संदेश मिलता है कि भौतिक शक्ति और अस्त्र-शस्त्र की शक्ति से अधिक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक शक्ति और तप का बल होता है। महर्षि वशिष्ठ का ब्रह्मदण्ड ब्रह्मज्ञान और सत्य की शक्ति का प्रतीक है, जो सभी नकारात्मक शक्तियों को निष्क्रिय कर देता है।
वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के 55वें सर्ग में यह प्रसंग आता है कि जब राजा विश्वामित्र ने वशिष्ठ मुनि के आश्रम में उनकी दिव्य गौ “कामधेनु” को बलपूर्वक ले जाने का प्रयास किया, तो वशिष्ठ ने अपने तपोबल से कामधेनु को निर्देश दिया, जिससे उसकी शक्ति से विश्वामित्र की सेना नष्ट हो गई।
इसके बाद, विश्वामित्र ने अपने सौ पुत्रों को आदेश दिया कि वे वशिष्ठ को पकड़ लें, लेकिन वशिष्ठ के प्रताप से वे सभी भस्म हो गए। इस घटना के बाद, विश्वामित्र को यह अनुभव हुआ कि तपोबल और ब्रह्मतेज क्षात्रतेज से कहीं अधिक महान है।
विश्वामित्र ने राजपाट त्याग दिया और घोर तपस्या में लीन हो गए। उन्होंने भगवान शिव की कठोर तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर शिव ने उन्हें धनुर्विद्या, वेद, उपनिषद, और ब्रह्मास्त्र का ज्ञान प्रदान किया। इस वरदान के बाद, विश्वामित्र पुनः वशिष्ठ के आश्रम में पहुंचे।
वहां पहुंचकर, उन्होंने यमदंड (दंड जिसे मृत्यु का प्रतीक माना जाता है) लेकर वशिष्ठ के सामने खड़े हो गए और उन्हें चुनौती दी। वशिष्ठ मुनि ने अपने ब्रह्मदंड (तप, संयम और ब्रह्मज्ञान का प्रतीक) को उठाया। जब विश्वामित्र ने अपने दिव्यास्त्र चलाए, तो वशिष्ठ के ब्रह्मदंड ने उन सभी को निरर्थक कर दिया।
विश्वामित्र के सभी प्रयास विफल हो गए और अंततः उन्होंने समझा कि ब्रह्मतेज (तप और ज्ञान) क्षात्रतेज (शक्ति और अस्त्र-शस्त्र) से अधिक प्रबल है। इसके बाद, उन्होंने पूर्ण रूप से तपस्या का मार्ग अपनाया और अंततः ब्रह्मर्षि का पद प्राप्त किया।
सर्ग 54 में राजा विश्वामित्र, महर्षि वशिष्ठ की दिव्य गाय शबला (कामधेनु) को बलपूर्वक ले जाने का प्रयास करते हैं। वशिष्ठ के मना करने पर भी जब विश्वामित्र ने अपने बल के घमंड में शबला को हांकने का प्रयास किया, तो शबला ने अपनी अद्भुत शक्तियों का प्रदर्शन किया।
शबला का करुण क्रंदन:
जब सैनिक शबला को ले जाने लगे, तो शबला अत्यंत दुःखी होकर महर्षि वशिष्ठ के पास आई और रोते हुए बोली:
“हे ब्राह्मण! आप मुझे क्यों छोड़ रहे हैं? मैं आपकी सेवा में रहना चाहती हूँ।”
वशिष्ठ की आज्ञा:
महर्षि वशिष्ठ ने शबला को समझाया कि वह अपनी दिव्य शक्तियों का प्रयोग कर सकती है। वशिष्ठ ने उसे स्वतंत्र रूप से रक्षा के लिए कहा।
शबला की शक्ति प्रदर्शन:
शबला ने अपनी अद्भुत शक्ति से विभिन्न प्रकार के योद्धाओं की उत्पत्ति की, जैसे:
• शक, यवन, पल्लव, कांबोज: विदेशी और मलेच्छ योद्धा उत्पन्न किए।
• प्रबल योद्धाओं की सेना: जिनकी संख्या अनगिनत थी।
विश्वामित्र की सेना का संहार:
शबला द्वारा उत्पन्न इन योद्धाओं ने विश्वामित्र की विशाल सेना को परास्त कर दिया। उनकी सेना का संहार इतनी तीव्रता से हुआ कि स्वयं विश्वामित्र भी असहाय हो गए।
विश्वामित्र की हार:
सभी प्रयासों के बाद भी विश्वामित्र की सेना नष्ट हो गई, और वह पराजित होकर वहाँ से चले गए।
सर्ग 53 में महर्षि वाल्मीकि ने राजा विश्वामित्र और महर्षि वशिष्ठ के बीच कामधेनु गाय (जिसे ‘शबला’ भी कहते हैं) को लेकर हुए संवाद का वर्णन किया है।
प्रसंग:
राजा विश्वामित्र एक महान क्षत्रिय थे। एक बार वे अपनी सेना सहित महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में पहुँचे। वशिष्ठ ने सभी का आदरपूर्वक स्वागत किया। उन्होंने शबला गाय की सहायता से पूरे राजा और उनकी विशाल सेना को भोजन कराया।
कामधेनु की विशेषता:
शबला एक दिव्य गाय थी, जो कामधेनु की श्रेणी में आती थी। वह इच्छानुसार कोई भी वस्तु उत्पन्न कर सकती थी, जैसे स्वादिष्ट भोजन, वस्त्र, आभूषण आदि।
विश्वामित्र का शबला को माँगना:
राजा विश्वामित्र ने शबला की शक्तियों को देखकर मोहित हो गए। उन्होंने वशिष्ठ से शबला को अपने राज्य के लिए माँग लिया। उन्होंने इसके बदले में असंख्य रत्न, धन, गाएँ और हाथी देने का प्रस्ताव रखा।
वशिष्ठ का इंकार:
महर्षि वशिष्ठ ने कहा कि शबला उनके लिए केवल एक गाय नहीं, बल्कि उनके यज्ञों और धार्मिक कार्यों के लिए आवश्यक है। वह आश्रम की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है, इसलिए उसे देने में असमर्थ हैं।
विश्वामित्र का क्रोध:
राजा विश्वामित्र वशिष्ठ के इस उत्तर से क्रोधित हो गए। उन्होंने अपने सैनिकों को शबला को बलपूर्वक ले जाने का आदेश दिया।
वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के 52वें सर्ग में महर्षि वशिष्ठ द्वारा राजा विश्वामित्र का सत्कार और कामधेनु (नंदिनी) को अभीष्ट वस्तुओं को उत्पन्न करने का आदेश देने की कथा वर्णित है।
1. राजा विश्वामित्र का आगमन
राजा विश्वामित्र, जो एक प्रतापी राजा और महान योद्धा थे, एक दिन अपनी विशाल सेना, मंत्रियों और सेवकों के साथ महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में पहुंचे। वशिष्ठ ऋषि का आश्रम पवित्र, प्राकृतिक सुंदरता से भरा और दिव्य आभा से युक्त था।
2. महर्षि वशिष्ठ द्वारा स्वागत
महर्षि वशिष्ठ ने राजा विश्वामित्र का आदरपूर्वक स्वागत किया।
• वशिष्ठ ने राजा के लिए आसन, जल और सभी पारंपरिक सत्कार की व्यवस्था की।
• राजा विश्वामित्र ने महर्षि वशिष्ठ के तप, तेज और उनके आश्रम की दिव्यता को देखा और बहुत प्रभावित हुए।
3. अतिथ्य के लिए कामधेनु का उपयोग
राजा विश्वामित्र की विशाल सेना के स्वागत और भोजन की व्यवस्था एक साधारण आश्रम में करना कठिन था।
• महर्षि वशिष्ठ ने अपनी दिव्य कामधेनु गाय ‘नंदिनी’ से कहा:
“हे नंदिनी! तुम अपनी शक्ति से सभी आवश्यक वस्तुएं उत्पन्न करो, जिससे हमारे सभी अतिथियों का उत्तम सत्कार हो सके।”
4. कामधेनु का चमत्कार
नंदिनी गाय ने महर्षि वशिष्ठ की आज्ञा पाकर सभी प्रकार के भोजन, रसद, बिछौने, वस्त्र, आभूषण, सेवक, सैनिक, रथ, घोड़े आदि उत्पन्न कर दिए।
• राजा विश्वामित्र और उनकी पूरी सेना का अतिथ्य बहुत भव्यता से हुआ।
• सेना के सभी सैनिक और अधिकारी संतुष्ट हो गए।
वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के 51वें सर्ग में ऋषि शतानन्द द्वारा ऋषि विश्वामित्र से श्रीराम के विषय में जानकारी प्राप्त करने और श्रीराम को विश्वामित्र की पुरानी कथा सुनाने का विस्तृत वर्णन है।
1. शतानन्द जी का आगमन और प्रश्न
महर्षि शतानन्द, जो राजा जनक के राजपुरोहित और अहल्या-पुत्र थे, को जब ज्ञात हुआ कि उनके माता-पिता का उद्धार श्रीराम के द्वारा हुआ है, तो वे अत्यंत प्रसन्न हुए। वे स्वयं राजा जनक के साथ श्रीराम, लक्ष्मण और ऋषि विश्वामित्र के दर्शन के लिए आए।
महर्षि शतानन्द ने विश्वामित्र से पूछा:
“हे मुनिवर! यह बताइए कि ये दिव्य राजकुमार कौन हैं, जिनके तेज और सौम्यता से यह सभा कांतिमान हो रही है?”
2. विश्वामित्र द्वारा श्रीराम का परिचय
ऋषि विश्वामित्र ने श्रीराम और लक्ष्मण का परिचय दिया:
• ये अयोध्या नरेश महाराज दशरथ के पुत्र हैं।
• बड़े भाई श्रीराम और छोटे भाई लक्ष्मण हैं।
• श्रीराम ने ताड़का, सुबाहु और मारीच जैसे राक्षसों का वध करके यज्ञ की रक्षा की है।
• इन्होंने अहल्या का उद्धार किया है।
3. शतानन्द का प्रसन्न होना
शतानन्द अपने माता-पिता के उद्धार से बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने श्रीराम की प्रशंसा की। वे अत्यंत कृतज्ञता से भर गए और भगवान श्रीराम को अपने परिवार के उद्धारकर्ता के रूप में देखा।
4. विश्वामित्र की पुरानी कथा का वर्णन
शतानन्द ने श्रीराम को महर्षि विश्वामित्र की महान कथा सुनाई:
a. राजा से ऋषि बनने की यात्रा
• विश्वामित्र पहले एक प्रतापी राजा थे, जो अपने पराक्रम और राज्य-व्यवस्था के लिए प्रसिद्ध थे।
• एक बार वे अपनी सेना के साथ महर्षि वशिष्ठ के आश्रम पहुंचे।
• वशिष्ठ ने कामधेनु गाय के माध्यम से पूरी सेना का आतिथ्य किया।
वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के 50वें सर्ग में श्रीराम, लक्ष्मण और ऋषि विश्वामित्र का मिथिला पुरी पहुंचने का वर्णन किया गया है। इस सर्ग में राजा जनक द्वारा अतिथियों का स्वागत और विश्वामित्र से उनका परिचय प्राप्त करने का प्रसंग है।
श्रीराम का मिथिला पुरी पहुंचना
अहल्या के उद्धार के पश्चात, श्रीराम, लक्ष्मण और ऋषि विश्वामित्र मिथिला की ओर बढ़े। मिथिला नगरी अपनी समृद्धि, शांति और भव्यता के लिए प्रसिद्ध थी। जब वे नगर के समीप पहुंचे, तो जनकपुरी के नागरिक उनकी दिव्य आभा देखकर मोहित हो गए।
राजा जनक का स्वागत
राजा जनक को जब ज्ञात हुआ कि महान तपस्वी विश्वामित्र अपने साथ दो तेजस्वी राजकुमारों को लेकर आए हैं, तो वे स्वयं नगर के प्रमुखों और मंत्रियों के साथ उनका स्वागत करने पहुंचे। राजा जनक ने विश्वामित्र के चरण स्पर्श कर उनका अभिवादन किया और उचित आतिथ्य सत्कार किया।
विश्वामित्र से परिचय प्राप्त करना
राजा जनक ने विनम्रता से ऋषि विश्वामित्र से पूछा:
“महर्षि! ये दोनों दिव्य पुरुष कौन हैं, जिनकी आभा सूर्य और चंद्रमा के समान दमक रही है? ये अपने बल और तेज में अद्वितीय प्रतीत होते हैं। कृपया मुझे इनका परिचय दें।”
विश्वामित्र द्वारा परिचय
ऋषि विश्वामित्र ने राजा जनक को बताया:
• ये दोनों राजकुमार अयोध्या के महाराज दशरथ के पुत्र हैं।
• बड़े भाई का नाम श्रीराम है और छोटे भाई लक्ष्मण हैं।
• ये महाबलशाली, धर्मपरायण और विनम्र हैं।
• ये ताड़का, सुबाहु और मारीच जैसे राक्षसों का संहार कर चुके हैं।
• इन्हें मैं विशेष उद्देश्य से यहाँ लेकर आया हूँ, ताकि ये आपके धनुष-यज्ञ में भाग लें।
राजा जनक की प्रसन्नता
राजा जनक यह सुनकर अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने श्रीराम और लक्ष्मण का स्वागत किया और उन्हें अपने महल में आदरपूर्वक ठहराया।
सर्ग का महत्व
यह सर्ग श्रीराम और लक्ष्मण के तेज, शौर्य और मर्यादा का परिचय कराता है। साथ ही, राजा जनक की धर्मनिष्ठा और ऋषि विश्वामित्र के प्रति उनका सम्मान भी दर्शाता है। यह कथा उस महत्त्वपूर्ण क्षण की भूमिका बांधती है, जब श्रीराम शिव के धनुष को उठाने और सीता स्वयंवर में भाग लेने वाले हैं।
वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के 49वें सर्ग में अहल्या उद्धार की कथा का विस्तार मिलता है और इंद्र को पितृ देवताओं द्वारा पुनर्स्थापित किए जाने की घटना का वर्णन है।
पितृ देवताओं द्वारा इंद्र का उद्धार
जब महर्षि गौतम ने इंद्र को अपनी पत्नी अहल्या के साथ छल करते हुए देखा, तो उन्होंने क्रोध में आकर इंद्र को शाप दिया कि उसके शरीर पर सहस्र (हजार) योनियों के चिह्न हो जाएं। इस शाप के कारण इंद्र अत्यंत लज्जित हो गए और उन्होंने अपने देवराज पद को छोड़ दिया।
देवताओं में जब इंद्र की अनुपस्थिति में समस्याएं बढ़ने लगीं, तो सभी देवता पितृ देवताओं के पास गए और उनसे इंद्र के उद्धार की प्रार्थना की। पितृ देवताओं ने इंद्र को भेड़े (मेढ़े) के अंडकोश से युक्त किया, जिससे उसकी सहस्र योनियाँ ‘सहस्र नेत्रों’ में परिवर्तित हो गईं। इस प्रकार इंद्र को ‘सहस्राक्ष’ (हजार नेत्रों वाला) नाम मिला और वह पुनः स्वर्ग के राजा बन गए।
श्रीराम द्वारा अहल्या का उद्धार
ऋषि विश्वामित्र, श्रीराम और लक्ष्मण के साथ उस आश्रम में पहुंचे, जहां अहल्या पत्थर के रूप में अपने शाप का पालन कर रही थीं। विश्वामित्र ने श्रीराम से कहा कि वे अपने पवित्र चरणों से उस स्थान का स्पर्श करें।
श्रीराम के चरण स्पर्श करते ही अहल्या का पत्थर रूप समाप्त हो गया और वे अपने दिव्य स्वरूप में लौट आईं। उनके शरीर से प्रकाश फूट पड़ा और उनकी तपस्या का तेज प्रकट हुआ।
अहल्या ने श्रीराम की स्तुति की और उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट की। महर्षि गौतम भी वहाँ उपस्थित हुए और उन्होंने अहल्या को क्षमा कर पुनः अपने साथ स्वीकार कर लिया।
सर्ग का संदेश
इस सर्ग में यह संदेश निहित है कि भगवान श्रीराम का स्पर्श और उनकी उपस्थिति शाप और पाप से मुक्ति दिला सकती है। यह सर्ग धर्म, तपस्या, क्षमा और उद्धार के महत्व को दर्शाता है।
वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के 48वें सर्ग में ऋषि विश्वामित्र, श्रीराम और लक्ष्मण के साथ विशाला पुरी पहुँचते हैं। वहाँ का राजा सुमति उनका आदरपूर्वक स्वागत करता है। राजा सुमति को ज्ञात होता है कि श्रीराम और लक्ष्मण स्वयं दशरथ नंदन हैं और ऋषि विश्वामित्र के साथ हैं, तो वह अत्यंत प्रसन्न होता है। वह उन्हें आतिथ्य सत्कार प्रदान करता है और वे उस रात विशाला पुरी में ही ठहरते हैं।
अगले दिन मिथिला की ओर प्रस्थान
प्रातःकाल होने पर श्रीराम, लक्ष्मण और ऋषि विश्वामित्र मिथिला की ओर प्रस्थान करते हैं। मार्ग में चलते समय श्रीराम आसपास के प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेते हैं और उत्सुकतावश ऋषि से पूछते हैं, “हे मुनिवर! यह वनक्षेत्र किसका है? यहाँ इतनी दिव्यता क्यों प्रतीत हो रही है?”
अहल्या के शाप की कथा
तब ऋषि विश्वामित्र उन्हें महर्षि गौतम और उनकी पत्नी अहल्या की कथा सुनाते हैं:
महर्षि गौतम और अहल्या
महर्षि गौतम एक सिद्ध तपस्वी थे, जो अपनी पत्नी अहल्या के साथ इसी आश्रम में रहते थे। अहल्या, ब्रह्मा जी द्वारा सृष्ट एक अनुपम सुंदरी थीं, जिनका विवाह महर्षि गौतम से हुआ था।
इंद्र का छल
देवताओं के राजा इंद्र, अहल्या की अप्रतिम सुंदरता पर मोहित हो गए और उन्होंने छल का सहारा लिया। एक दिन, जब महर्षि गौतम गंगा स्नान के लिए गए हुए थे, इंद्र ने महर्षि का रूप धारण कर लिया और अहल्या के कक्ष में प्रवेश किया। अहल्या इंद्र के वास्तविक स्वरूप को जान गईं, फिर भी वे उसके छल में फंस गईं।
महर्षि गौतम का क्रोध और शाप
महर्षि गौतम ने तपोबल से इस छल को देख लिया और तुरंत ही आश्रम लौट आए। उन्होंने इंद्र को अपनी पत्नी के साथ देखकर क्रोधित होकर इंद्र को शाप दिया:
• इंद्र के शरीर पर सहस्र (हज़ार) योनियों के चिह्न उत्पन्न हो गए, जिससे वह ‘सहस्रयोनि’ कहलाने लगे।
• अहल्या को भी उन्होंने शाप दिया कि वह तपस्विनी के रूप में पत्थर की भांति इस आश्रम में पड़े रहेंगी, जब तक श्रीराम उनके उद्धार के लिए नहीं आएंगे।
अहल्या का तप और उद्धार की प्रतीक्षा
वाल्मीकि रामायण – बालकाण्ड – सर्ग 47 में महर्षि विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को लेकर विशाला नगरी पहुँचते हैं। वहाँ के राजा सुमति उनका आदरपूर्वक स्वागत करते हैं। इस दौरान राजा सुमति, विश्वामित्र से पूछते हैं कि वे इन दो दिव्य रूप वाले राजकुमारों (राम और लक्ष्मण) को कहाँ ले जा रहे हैं और उनके आने का उद्देश्य क्या है।
राजा सुमति के वंश का उल्लेख
राजा सुमति के वंश का उल्लेख करते हुए महर्षि विश्वामित्र कहते हैं कि –
1. इक्ष्वाकु वंशीय राजा अनरण्य के वंश में एक महाप्रतापी राजा विशाल उत्पन्न हुए।
2. उन्होंने इस विशाला नगरी की स्थापना की, जो अब बहुत समृद्ध और वैभवशाली नगरी बन चुकी है।
3. विशाल के बाद उनके पुत्र हेमचन्द्र राजा बने।
4. हेमचन्द्र के बाद उनका पुत्र सुतपास्तथा राजा बना।
5. सुतपास्तथा के पुत्र बृहदश्व हुए, जो बहुत पराक्रमी राजा थे।
6. बृहदश्व के पुत्र कुशिक हुए, जिन्होंने अपने शौर्य और पराक्रम से प्रसिद्धि पाई।
7. कुशिक के पुत्र संहिताश्व हुए, जो इस कुल के एक और महान राजा थे।
8. इन्हीं के वंश में आगे चलकर सुमति राजा हुए, जो वर्तमान में इस विशाला नगरी के शासक हैं।
इस प्रकार, राजा सुमति का वंश इक्ष्वाकु वंश से संबंधित है और उनके पूर्वजों में कई प्रतापी राजाओं का जन्म हुआ, जिन्होंने अपनी वीरता और धर्मपरायणता से ख्याति अर्जित की।
वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के 46वें सर्ग में महर्षि कश्यप और उनकी पत्नी दिति के बीच संवाद तथा इंद्र द्वारा दिति के गर्भ का विभाजन वर्णित है।
1. दिति का वरदान माँगना
दिति, जो महर्षि कश्यप की पत्नी थीं, ने उनसे एक वीर पुत्र का वरदान माँगा, जो इंद्र को पराजित कर सके। वह अपने पुत्रों (हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष) की मृत्यु से दुखी थीं और चाहती थीं कि उनका होने वाला पुत्र इंद्र का वध करे। महर्षि कश्यप ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और उन्हें व्रत का पालन करने के लिए कहा।
2. दिति का गर्भधारण और इंद्र की चिंता
दिति ने गर्भधारण किया और कठिन तपस्या में लीन हो गईं। यह सुनकर देवराज इंद्र चिंतित हो गए कि यदि यह पुत्र जन्म लेगा, तो वह उनके लिए घातक सिद्ध होगा। इंद्र ने एक योजना बनाई और सेवा के बहाने दिति के पास रहने लगे।
3. दिति का नियम भंग और इंद्र द्वारा गर्भ विभाजन
इंद्र ने दिति की सेवा करते हुए उचित अवसर की प्रतीक्षा की। एक दिन दिति थकान के कारण गहरी नींद में सो गईं और उनके व्रत का नियम भंग हो गया। यही समय देखकर इंद्र ने अपने वज्र से दिति के गर्भ को सात टुकड़ों में विभाजित कर दिया।
4. मरुतों का जन्म
जब इंद्र गर्भ को काट रहे थे, तब प्रत्येक भाग ने “मा रुदः” (मत रोओ) कहा। अंततः इन सात टुकड़ों से सप्त मरुत (पवन देवता) उत्पन्न हुए, जिन्हें इंद्र ने अपना मित्र बना लिया। जब दिति जागीं, तो उन्होंने इंद्र को देखा और उन्हें अपने गर्भ को विभाजित करने के लिए क्षमा कर दिया।
5. कथा का सार
यह कथा दर्शाती है कि कैसे इंद्र ने अपने भय के कारण दिति के गर्भ को काट डाला, लेकिन अंततः सप्त मरुत देवताओं के रूप में उत्पन्न हुए और इंद्र के सहायक बन गए। इस कथा में तपस्या, वरदान, भय, और नियति के तत्व प्रमुख हैं।
वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड, 45वें सर्ग में समुद्र मंथन
वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के 45वें सर्ग में महर्षि विश्वामित्र श्रीराम को समुद्र मंथन की कथा सुनाते हैं। इसमें देवताओं और दैत्यों ने मिलकर अमृत प्राप्ति के लिए क्षीरसागर का मंथन किया था।
समुद्र मंथन की प्रक्रिया
1. समुद्र मंथन का कारण – असुरों के बढ़ते प्रभाव से चिंतित होकर देवताओं ने भगवान विष्णु से सहायता मांगी। उन्होंने अमृत प्राप्त करने के लिए असुरों से संधि करने को कहा।
2. मंदराचल पर्वत का मथनी बनना – मंथन के लिए मंदराचल पर्वत को मथनी बनाया गया, लेकिन इसे स्थिर रखने के लिए कोई आधार नहीं था।
3. भगवान विष्णु का कूर्म अवतार – भगवान विष्णु ने कछुए (कूर्म) का रूप धारण किया और अपनी पीठ पर मंदराचल को धारण किया।
4. वासुकि नाग की रस्सी – मंथन के लिए वासुकि नाग को रस्सी बनाया गया। देवताओं ने नाग की पूंछ पकड़ी और असुरों ने फन वाला भाग पकड़ा।
5. मंथन से निकली वस्तुएँ – मंथन के दौरान अनेक दिव्य वस्तुएँ निकलीं, जिनमें से प्रमुख थीं:
• कालकूट विष – यह सबसे पहले निकला, जिसे भगवान शिव ने पीकर नीलकंठ नाम प्राप्त किया।
• कामधेनु गौ – जिसे ऋषियों ने ग्रहण किया।
• उच्चैःश्रवा घोड़ा – जिसे असुरों ने लिया।
• ऐरावत हाथी – जिसे इंद्र ने लिया।
• कौस्तुभ मणि – जिसे विष्णु ने धारण किया।
• अप्सराएँ – जो स्वर्ग को प्राप्त हुईं।
• मदिरा – जिसे असुरों ने ग्रहण किया।
• लक्ष्मी देवी – जो भगवान विष्णु को वरमाला पहनाकर उनकी अर्धांगिनी बनीं।
• धन्वंतरि और अमृत कलश – अंत में अमृत कलश के साथ भगवान धन्वंतरि प्रकट हुए।
अमृत के लिए युद्ध और मोहिनी अवतार
• अमृत पाकर असुर छल करने लगे, तब भगवान विष्णु ने मोहिनी स्वरूप धारण कर अमृत देवताओं को पिला दिया।
• राहु नामक असुर ने छल से अमृत पी लिया, लेकिन विष्णु जी ने सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट दिया।
इस प्रकार देवताओं को अमृत प्राप्त हुआ और वे पुनः बलशाली हो गए।