
वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड - साठवां सर्ग: त्रिशंकु का यज्ञ और नूतन स्वर्ग की रचना
प्रस्तावना
राजा त्रिशंकु ने सशरीर स्वर्ग प्राप्ति की अभिलाषा से महर्षि विश्वामित्र का आश्रय लिया। अपने यज्ञीय बल और तपोबल से महर्षि ने त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेजा, किंतु देवराज इंद्र ने त्रिशंकु को वापस पृथ्वी की ओर भेज दिया। इससे क्रोधित होकर विश्वामित्र ने एक नए स्वर्ग की रचना का संकल्प किया, किंतु देवताओं के समझाने पर वे शांत हुए।
सर्ग का वर्णन
1. त्रिशंकु की अभिलाषा
राजा त्रिशंकु अपने गुरू वसिष्ठ के पास गए और उनसे सशरीर स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा प्रकट की। वसिष्ठ ने इसे असंभव बताते हुए मना कर दिया।
2. विश्वामित्र का संकल्प
वसिष्ठ के पुत्रों ने भी त्रिशंकु का उपहास किया, जिससे त्रिशंकु ने महर्षि विश्वामित्र का आश्रय लिया। विश्वामित्र ने त्रिशंकु की इच्छा पूरी करने का संकल्प लिया और यज्ञ की तैयारी की।
3. यज्ञ का अनुष्ठान
महर्षि ने यज्ञ आरंभ किया और अपने मंत्रबल से त्रिशंकु को स्वर्ग भेजा। त्रिशंकु जैसे ही स्वर्ग पहुँचे, इंद्र ने उन्हें नीचे धकेल दिया।
4. क्रोधित विश्वामित्र का नूतन स्वर्ग निर्माण
इंद्र के इस व्यवहार से क्रोधित होकर महर्षि ने अपने तपोबल से एक नए स्वर्ग की रचना प्रारंभ की। उन्होंने नए तारे, ग्रह, और आकाश मंडल की रचना की और त्रिशंकु को वहाँ स्थान दिया।
5. देवताओं का हस्तक्षेप और समझौता
देवताओं ने विश्वामित्र को स्तुति करते हुए समझाया कि सृष्टि का संतुलन बिगड़ जाएगा। महर्षि शांत हो गए, और त्रिशंकु को उनके बनाए नए स्वर्ग में ही स्थान मिला, किंतु वे सदैव उल्टे लटके रहेंगे।
उपसंहार
इस सर्ग से यह शिक्षा मिलती है कि महर्षि विश्वामित्र की दृढ़ संकल्प शक्ति अपार थी, किंतु सृष्टि के नियमों का पालन भी आवश्यक है। देवताओं के साथ समझौता कर महर्षि ने अपनी क्रोधाग्नि को शांति दी और संतुलन स्थापित किया।