
वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के 59वें सर्ग में महर्षि विश्वामित्र द्वारा त्रिशंकु के यज्ञ की तैयारी का वर्णन किया गया है। इस सर्ग में महर्षि विश्वामित्र अपने पुत्रों और अन्य ऋषि-मुनियों को यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित करते हैं।
प्रसंग का सारांश:
1. यज्ञ का निश्चय: महर्षि विश्वामित्र राजा त्रिशंकु की इच्छा को पूर्ण करने के लिए एक महान यज्ञ का आयोजन करने का निश्चय करते हैं, जिससे त्रिशंकु अपने चांडाल रूप में ही स्वर्ग को प्राप्त कर सके।
2. पुत्रों को आज्ञा: महर्षि विश्वामित्र अपने पुत्रों को आदेश देते हैं कि वे यज्ञ के लिए आवश्यक सामग्री एकत्र करें और अन्य ऋषि-मुनियों को यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित करें।
3. ऋषि-मुनियों को निमंत्रण: विश्वामित्र के पुत्र विभिन्न आश्रमों में जाकर महात्मा, ऋषि, मुनि और ब्राह्मणों को यज्ञ में भाग लेने के लिए निमंत्रण देते हैं।
4. कुछ ऋषियों का विरोध: हालांकि, कई ऋषि-मुनि महर्षि वशिष्ठ के प्रति सम्मान के कारण इस यज्ञ में भाग लेने से इनकार कर देते हैं, क्योंकि वशिष्ठ के पुत्रों ने पहले ही त्रिशंकु को शाप दिया था।
5. विश्वामित्र का क्रोध: जब महर्षि विश्वामित्र को यह ज्ञात होता है कि कई ऋषियों ने यज्ञ में भाग लेने से मना कर दिया है, तो वे अत्यंत क्रोधित होते हैं।
6. पुत्रों को शाप: महर्षि विश्वामित्र अपने ही पुत्रों से अप्रसन्न होकर उन्हें शाप देते हैं कि वे सौ जन्मों तक ‘म्लेच्छ’ (असभ्य जाति) में जन्म लेंगे, क्योंकि उन्होंने अपने पिता के आदेश का पालन पूर्ण निष्ठा से नहीं किया।
7. यज्ञ की तैयारी: इसके बाद, महर्षि विश्वामित्र अपने तपोबल और अन्य सहयोगी ऋषियों की सहायता से यज्ञ की सभी तैयारियाँ पूरी करते हैं।
प्रसंग की शिक्षा:
• गुरु-आज्ञा का पालन: महर्षि विश्वामित्र का अपने पुत्रों को शाप देना यह दर्शाता है कि गुरु के आदेश का पालन करना अत्यंत महत्वपूर्ण होता है।
• दृढ़ संकल्प: विश्वामित्र का त्रिशंकु की इच्छा पूरी करने के लिए कठिन परिस्थितियों में भी अडिग रहना उनके दृढ़ निश्चय को दर्शाता है।
• शक्ति और संयम: यज्ञ के आयोजन में आने वाली बाधाओं का सामना करने के लिए संयम और शक्ति का संतुलन आवश्यक है।
• सदाचार और आदर: महर्षि वशिष्ठ के प्रति अन्य ऋषि-मुनियों का सम्मान यह सिखाता है कि सदाचार और परंपरा का पालन हमेशा वांछनीय होता है।