
वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के 55वें सर्ग में यह प्रसंग आता है कि जब राजा विश्वामित्र ने वशिष्ठ मुनि के आश्रम में उनकी दिव्य गौ “कामधेनु” को बलपूर्वक ले जाने का प्रयास किया, तो वशिष्ठ ने अपने तपोबल से कामधेनु को निर्देश दिया, जिससे उसकी शक्ति से विश्वामित्र की सेना नष्ट हो गई।
इसके बाद, विश्वामित्र ने अपने सौ पुत्रों को आदेश दिया कि वे वशिष्ठ को पकड़ लें, लेकिन वशिष्ठ के प्रताप से वे सभी भस्म हो गए। इस घटना के बाद, विश्वामित्र को यह अनुभव हुआ कि तपोबल और ब्रह्मतेज क्षात्रतेज से कहीं अधिक महान है।
विश्वामित्र ने राजपाट त्याग दिया और घोर तपस्या में लीन हो गए। उन्होंने भगवान शिव की कठोर तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर शिव ने उन्हें धनुर्विद्या, वेद, उपनिषद, और ब्रह्मास्त्र का ज्ञान प्रदान किया। इस वरदान के बाद, विश्वामित्र पुनः वशिष्ठ के आश्रम में पहुंचे।
वहां पहुंचकर, उन्होंने यमदंड (दंड जिसे मृत्यु का प्रतीक माना जाता है) लेकर वशिष्ठ के सामने खड़े हो गए और उन्हें चुनौती दी। वशिष्ठ मुनि ने अपने ब्रह्मदंड (तप, संयम और ब्रह्मज्ञान का प्रतीक) को उठाया। जब विश्वामित्र ने अपने दिव्यास्त्र चलाए, तो वशिष्ठ के ब्रह्मदंड ने उन सभी को निरर्थक कर दिया।
विश्वामित्र के सभी प्रयास विफल हो गए और अंततः उन्होंने समझा कि ब्रह्मतेज (तप और ज्ञान) क्षात्रतेज (शक्ति और अस्त्र-शस्त्र) से अधिक प्रबल है। इसके बाद, उन्होंने पूर्ण रूप से तपस्या का मार्ग अपनाया और अंततः ब्रह्मर्षि का पद प्राप्त किया।