
वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के 58वें सर्ग में राजा त्रिशंकु, महर्षि वशिष्ठ के पुत्रों और महर्षि विश्वामित्र के बीच एक महत्वपूर्ण घटना का वर्णन मिलता है।
प्रसंग का सारांश:
1. त्रिशंकु की इच्छा: इक्ष्वाकु वंश के राजा त्रिशंकु को अपने जीवित अवस्था में ही स्वर्ग जाने की तीव्र इच्छा होती है। वे इस यज्ञ को संपन्न कराने के लिए पहले महर्षि वशिष्ठ के पास जाते हैं।
2. वशिष्ठ का अस्वीकार: महर्षि वशिष्ठ त्रिशंकु की इस अनोखी और अस्वाभाविक इच्छा को धर्म के विरुद्ध मानते हैं और यज्ञ करने से मना कर देते हैं।
3. वशिष्ठ पुत्रों के पास जाना: त्रिशंकु वशिष्ठ के 100 पुत्रों के पास जाकर अपनी इच्छा पुनः व्यक्त करते हैं और यज्ञ करने का निवेदन करते हैं।
4. शाप का प्रकोप: वशिष्ठ के पुत्र अपने पिता के आदेश का उल्लंघन होते देख क्रोधित हो जाते हैं। वे त्रिशंकु को शाप देते हैं कि वह अपने क्षत्रिय धर्म से पतित होकर चांडाल (अत्यंत नीच) बन जाए।
5. चांडाल रूप में त्रिशंकु: वशिष्ठ पुत्रों के शाप से त्रिशंकु का शरीर तुरंत ही चांडाल के रूप में परिवर्तित हो जाता है। उसका रंग काला हो जाता है, शरीर मलिन हो जाता है, और उसके वस्त्र भी मैले हो जाते हैं।
6. विश्वामित्र की शरण में: चांडाल रूप में त्रिशंकु अत्यंत व्याकुल होकर महर्षि विश्वामित्र के पास पहुँचता है और अपनी समस्त व्यथा सुनाता है।
7. विश्वामित्र का आश्वासन: महर्षि विश्वामित्र त्रिशंकु की स्थिति देखकर दया करते हैं। वे उसे अपनी शरण में लेकर यह वचन देते हैं कि वे उसे उसके चांडाल रूप में ही स्वर्ग भेजेंगे और उसकी इच्छा को पूर्ण करेंगे।
प्रसंग की शिक्षा:
• यह प्रसंग धर्म, तप और शाप की शक्ति का परिचय कराता है।
• महर्षि विश्वामित्र का करुणा और सहायता भाव, साथ ही उनके दृढ़ संकल्प को दर्शाता है।
• त्रिशंकु की अपनी इच्छा के प्रति अडिगता और विश्वामित्र की शरण में जाने से यह भी संदेश मिलता है कि सच्ची शरण में जाने पर मार्ग प्राप्त हो सकता है।