
वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड, 45वें सर्ग में समुद्र मंथन
वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के 45वें सर्ग में महर्षि विश्वामित्र श्रीराम को समुद्र मंथन की कथा सुनाते हैं। इसमें देवताओं और दैत्यों ने मिलकर अमृत प्राप्ति के लिए क्षीरसागर का मंथन किया था।
समुद्र मंथन की प्रक्रिया
1. समुद्र मंथन का कारण – असुरों के बढ़ते प्रभाव से चिंतित होकर देवताओं ने भगवान विष्णु से सहायता मांगी। उन्होंने अमृत प्राप्त करने के लिए असुरों से संधि करने को कहा।
2. मंदराचल पर्वत का मथनी बनना – मंथन के लिए मंदराचल पर्वत को मथनी बनाया गया, लेकिन इसे स्थिर रखने के लिए कोई आधार नहीं था।
3. भगवान विष्णु का कूर्म अवतार – भगवान विष्णु ने कछुए (कूर्म) का रूप धारण किया और अपनी पीठ पर मंदराचल को धारण किया।
4. वासुकि नाग की रस्सी – मंथन के लिए वासुकि नाग को रस्सी बनाया गया। देवताओं ने नाग की पूंछ पकड़ी और असुरों ने फन वाला भाग पकड़ा।
5. मंथन से निकली वस्तुएँ – मंथन के दौरान अनेक दिव्य वस्तुएँ निकलीं, जिनमें से प्रमुख थीं:
• कालकूट विष – यह सबसे पहले निकला, जिसे भगवान शिव ने पीकर नीलकंठ नाम प्राप्त किया।
• कामधेनु गौ – जिसे ऋषियों ने ग्रहण किया।
• उच्चैःश्रवा घोड़ा – जिसे असुरों ने लिया।
• ऐरावत हाथी – जिसे इंद्र ने लिया।
• कौस्तुभ मणि – जिसे विष्णु ने धारण किया।
• अप्सराएँ – जो स्वर्ग को प्राप्त हुईं।
• मदिरा – जिसे असुरों ने ग्रहण किया।
• लक्ष्मी देवी – जो भगवान विष्णु को वरमाला पहनाकर उनकी अर्धांगिनी बनीं।
• धन्वंतरि और अमृत कलश – अंत में अमृत कलश के साथ भगवान धन्वंतरि प्रकट हुए।
अमृत के लिए युद्ध और मोहिनी अवतार
• अमृत पाकर असुर छल करने लगे, तब भगवान विष्णु ने मोहिनी स्वरूप धारण कर अमृत देवताओं को पिला दिया।
• राहु नामक असुर ने छल से अमृत पी लिया, लेकिन विष्णु जी ने सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट दिया।
इस प्रकार देवताओं को अमृत प्राप्त हुआ और वे पुनः बलशाली हो गए।