
कथा का संक्षिप्त सार
राजा हरिश्चंद्र और उनका यज्ञ
अयोध्या के इक्ष्वाकु वंशी राजा हरिश्चंद्र ने एक यज्ञ करने का निश्चय किया।
इस यज्ञ के लिए एक मनुष्य बलि की आवश्यकता थी, जिसे वे प्राप्त नहीं कर पा रहे थे।
वे इस समस्या को हल करने के लिए अपने गुरु वशिष्ठ मुनि के पास गए, लेकिन कोई समाधान नहीं मिला।
शुनःशेप का क्रय
राजा हरिश्चंद्र ऋचीक मुनि के पुत्र शुनःशेप को उनके माता-पिता से मूल्य देकर क्रय कर लेते हैं, ताकि उसे यज्ञ में बलि के रूप में अर्पित किया जा सके।
शुनःशेप को अत्यंत दुख हुआ और उसने देवताओं से प्रार्थना की कि कोई उसकी रक्षा करे।
विश्वामित्र की शरण में शुनःशेप
शुनःशेप जब अपने जीवन से निराश हो गया, तो वह तपस्वी महर्षि विश्वामित्र के पास पहुंचा।
उसने मुनि से विनती की कि वे उसकी रक्षा करें।
विश्वामित्र ने करुणावश उसकी रक्षा का प्रण लिया और उसे यज्ञ में बचाने का उपाय बताया।
यज्ञ में रक्षा का उपाय
विश्वामित्र ने शुनःशेप को देवताओं की स्तुति करने के लिए विशेष मंत्र बताए।
जब राजा हरिश्चंद्र ने यज्ञ में शुनःशेप को बलि के लिए प्रस्तुत किया, तो शुनःशेप ने उन मंत्रों का उच्चारण किया।
मंत्रों से प्रसन्न होकर देवता उपस्थित हुए और उसकी रक्षा की।
इस प्रकार, बलि देने की आवश्यकता समाप्त हो गई और राजा हरिश्चंद्र का यज्ञ भी सफलतापूर्वक पूरा हुआ।
विश्वामित्र की तपस्या और सिद्धि
इस घटना के बाद, महर्षि विश्वामित्र ने फिर से कठोर तपस्या आरंभ की।
उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर देवताओं और ब्रह्मर्षियों ने उन्हें सम्मान दिया।
इस प्रकार, विश्वामित्र एक महात्मा और महान तपस्वी के रूप में और भी प्रतिष्ठित हो गए।