
वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के 49वें सर्ग में अहल्या उद्धार की कथा का विस्तार मिलता है और इंद्र को पितृ देवताओं द्वारा पुनर्स्थापित किए जाने की घटना का वर्णन है।
पितृ देवताओं द्वारा इंद्र का उद्धार
जब महर्षि गौतम ने इंद्र को अपनी पत्नी अहल्या के साथ छल करते हुए देखा, तो उन्होंने क्रोध में आकर इंद्र को शाप दिया कि उसके शरीर पर सहस्र (हजार) योनियों के चिह्न हो जाएं। इस शाप के कारण इंद्र अत्यंत लज्जित हो गए और उन्होंने अपने देवराज पद को छोड़ दिया।
देवताओं में जब इंद्र की अनुपस्थिति में समस्याएं बढ़ने लगीं, तो सभी देवता पितृ देवताओं के पास गए और उनसे इंद्र के उद्धार की प्रार्थना की। पितृ देवताओं ने इंद्र को भेड़े (मेढ़े) के अंडकोश से युक्त किया, जिससे उसकी सहस्र योनियाँ ‘सहस्र नेत्रों’ में परिवर्तित हो गईं। इस प्रकार इंद्र को ‘सहस्राक्ष’ (हजार नेत्रों वाला) नाम मिला और वह पुनः स्वर्ग के राजा बन गए।
श्रीराम द्वारा अहल्या का उद्धार
ऋषि विश्वामित्र, श्रीराम और लक्ष्मण के साथ उस आश्रम में पहुंचे, जहां अहल्या पत्थर के रूप में अपने शाप का पालन कर रही थीं। विश्वामित्र ने श्रीराम से कहा कि वे अपने पवित्र चरणों से उस स्थान का स्पर्श करें।
श्रीराम के चरण स्पर्श करते ही अहल्या का पत्थर रूप समाप्त हो गया और वे अपने दिव्य स्वरूप में लौट आईं। उनके शरीर से प्रकाश फूट पड़ा और उनकी तपस्या का तेज प्रकट हुआ।
अहल्या ने श्रीराम की स्तुति की और उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट की। महर्षि गौतम भी वहाँ उपस्थित हुए और उन्होंने अहल्या को क्षमा कर पुनः अपने साथ स्वीकार कर लिया।
सर्ग का संदेश
इस सर्ग में यह संदेश निहित है कि भगवान श्रीराम का स्पर्श और उनकी उपस्थिति शाप और पाप से मुक्ति दिला सकती है। यह सर्ग धर्म, तपस्या, क्षमा और उद्धार के महत्व को दर्शाता है।