बात करनी मुझे मुश्किल । बहादुर शाह ज़फ़र
बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तिरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी
ले गया छीन के कौन आज तिरा सब्र ओ क़रार
बे-क़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी
उस की आँखों ने ख़ुदा जाने किया क्या जादू
कि तबीअ'त मिरी माइल कभी ऐसी तो न थी
अब की जो राह-ए-मोहब्बत में उठाई तकलीफ़
सख़्त होती हमें मंज़िल कभी ऐसी तो न थी
चश्म-ए-क़ातिल मिरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन
जैसी अब हो गई क़ातिल कभी ऐसी तो न थी
क्या सबब तू जो बिगड़ता है 'ज़फ़र' से हर बार
ख़ू तिरी हूर-शमाइल कभी ऐसी तो न थी
बहुत दूर का एक गाँव | धीरज
कोई भी बहुत दूर का एक गाँव
एक भूरा पहाड़
बच्चा भूरा और बूढ़ा पहाड़
साँझ को लौटती भेड़
और दूर से लौटती शाम
रात से पहले का नीला पहाड़
था वही भूरा पहाड़।
भूरा बच्चा,
भूरा नहीं,
नीला पहाड़, गोद में लिए, आँखों से।
उतर आता है शहर
एक बाज़ार में थैला बिछाए,
बीच में रख देता है, नीला पहाड़।
और बेचने के बाद का,
बचा नीला पहाड़
अगली सुबह
जाकर मिला देता है,
उसी भूरे पहाड़ में।
सूअर के छौने । अनुपम सिंह
बच्चे चुरा आए हैं अपना बस्ता
मन ही मन छुट्टी कर लिये हैं
आज नहीं जाएँगे स्कूल
झूठ-मूठ का बस्ता खोजते बच्चे
मन ही मन नवजात बछड़े-सा
कुलाँच रहे हैं
उनकी आँखों ने देख लिया है
आश्चर्य का नया लोक
बच्चे टकटकी लगाए
आँखों में भर रहे हैं
अबूझ सौन्दर्य
सूअरी ने जने हैं
गेहुँअन रंग के सात छौने
ये छौने उनकी कल्पना के
नए पैमाने हैं
सूर्य देवता का रथ खींचते
सात घोड़े हैं
आज दिन-भर सवार रहेंगे बच्चे
अपने इस रथ पर।
माँ नहीं थी वह । विश्वनाथ प्रसाद तिवारी
माँ नहीं थी वह
आँगन थी
द्वार थी
किवाड़ थी,
चूल्हा थी
आग थी
नल की धार थी।
उलाहना।अज्ञेय
नहीं, नहीं, नहीं!
मैंने तुम्हें आँखों की ओट किया
पर क्या भुलाने को?
मैंने अपने दर्द को सहलाया
पर क्या उसे सुलाने को?
मेरा हर मर्माहत उलाहना
साक्षी हुआ कि मैंने अंत तक तुम्हें पुकारा!
ओ मेरे प्यार! मैंने तुम्हें बार-बार, बार-बार असीसा
तो यों नहीं कि मैंने बिछोह को कभी भी स्वीकारा।
नहीं, नहीं, नहीं!
पनसोखा है इन्द्रधनुष - मदन कश्यप
पनसोखा है इन्द्रधनुष
आसमान के नीले टाट पर मखमली पैबन्द की तरह फैला है।
कहीं यह तुम्हारा वही सतरंगा दुपट्टा तो नहीं
जो कुछ ऐसे ही गिर पड़ा था मेरे अधलेटे बदन पर
तेज़ साँसों से फूल-फूल जा रहे थे तुम्हारे नथने
लाल मिर्च से दहकते होंठ धीरे-धीरे बढ़ रहे थे मेरी ओर
एक मादा गेहूँअन फुंफकार रही थी
क़रीब आता एक डरावना आकर्षण था
मेरी आत्मा खिंचती चली जा रही थी जिसकी ओर
मृत्यु की वेदना से ज़्यादा बड़ी होती है जीवन की वेदना
दुपट्टे ने क्या मुझे वैसे ही लपेट लिया था जैसे आसमान को लपेट रखा है।
पनसोखा है इन्द्रधनुष
बारिश रुकने पर उगा है या बारिश रोकने के लिए उगा है
बारिश को थम जाने दो
बारिश को थम जाना चाहिए
प्यार को नहीं थमना चाहिए
क्या तुम वही थीं
जो कुछ देर पहले आयी थीं इस मिलेनियम पार्क में
सीने से आईपैड चिपकाए हुए
वैसे किस मिलेनियम से आयी थीं तुम
प्यार के बाद कोई वही कहाँ रह जाता है जो वह होता है
धीरे-धीरे धीमी होती गयी थी तुम्हारी आवाज़
क्रियाओं ने ले ली थी मनुहारों की जगह
ईश्वर मंदिर से निकलकर टहलने लगा था पार्क में
धीरे-धीरे ही मुझे लगा था
तुम्हारी साँसों से बड़ा कोई संगीत नहीं
तुम्हारी चुप्पी से मुखर कोई संवाद नहीं
तुम्हारी विस्मृति से बेहतर कोई स्मृति नहीं
पनसोखा है इन्द्रधनुष
जिस प्रक्रिया से किरणें बदलती हैं सात रंगों में
उसी प्रक्रिया से रंगहीन किरणों से बदल जाते हैं सातों रंग
होंठ मेरे होंठों के बहुत क़रीब आये
मैंने दो पहाड़ों के बीच की सूखी नदी में छिपा लिया अपना सिर
बादल हमें बचा रहे थे सूरज के ताप से
पाँवों के नीचे नर्म घासों के कुचलने का एहसास हमें था
दुनिया को समझ लेना चाहिए था
हम मांस के लोथड़े नहीं प्यार करने वाले दो ज़िंदा लोग थे
महज़ चुम्बन और स्पर्श नहीं था हमारा प्यार
वह कुछ उपक्रमों और क्रियाओं से हो सम्पन्न नहीं होता था
हम इन्द्रधनुष थे लेकिन पनसोखे नहीं
अपनी-अपनी देह के भीतर ढूँढ़ रहे थे अपनी-अपनी देह
बारिश की बूँदें जितनी हमारे बदन पर थीं उससे कहीं अधिक हमारी आत्मा में
जिस नैपकिन से पोंछा था तुमने अपना चेहरा मैंने उसे कूड़ेदान में नहीं डाला था
दहकते अंगारे से तुम्हारे निचले होंठ पर तब भी बची रह गयी थी एक मोटी-सी बूँद
मैं उसे अपनी तर्जनी पर उठा लेना चाहता था पर निहारता ही रह गया
अब कविता में उसे छूना चाह रहा हूँ तो अँगुली जल रही है।
बुद्धू।शंख घोष
मूल बंगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल
कोई हो जाये यदि बुद्धू अकस्मात, यह तो
वह जान नहीं पाएगा खुद से। जान यदि पाता यह
फिर तो वह कहलाता बुद्धिमान ही।
तो फिर तुम बुद्धू नहीं हो यह तुमने
कैसे है लिया जान?
मेरी ख़ता । अमृता प्रीतम
अनुवाद : अमिया कुँवर
जाने किन रास्तों से होती
और कब की चली
मैं उन रास्तों पर पहुँची
जहाँ फूलों लदे पेड़ थे
और इतनी महक थी—
कि साँसों से भी महक आती थी
अचानक दरख़्तों के दरमियान
एक सरोवर देखा
जिसका नीला और शफ़्फ़ाफ़ पानी
दूर तक दिखता था—
मैं किनारे पर खड़ी थी तो दिल किया
सरोवर में नहा लूँ
मन भर कर नहाई
और किनारे पर खड़ी
जिस्म सुखा रही थी
कि एक आसमानी आवाज़ आई
यह शिव जी का सरोवर है...
सिर से पाँव तक एक कँपकँपी आई
हाय अल्लाह! यह तो मेरी ख़ता
मेरा गुनाह—
कि मैं शिव के सरोवर में नहाई
यह तो शिव का आरक्षित सरोवर है
सिर्फ़... उनके लिए
और फिर वही आवाज़ थी
कहने लगी—
कि पाप-पुण्य तो बहुत पीछे रह गए
तुम बहूत दूर पहुँचकर आई हो
एक ठौर बँधी और देखा
किरनों ने एक झुरमुट-सा डाला
और सरोवर का पानी झिलमिलाया
लगा—जैसे मेरी ख़ता पर
शिव जी मुस्करा रहे...
पुरानी बातें | श्रद्धा उपाध्याय
पहले सिर्फ़ पुरानी बातें पुरानी लगती थीं
अब नई बातें भी पुरानी हो गई हैं
मैंने सिरके में डाल दिए हैं कॉलेज के कई दिन
बचपन की यादें लगता था सड़ जाएँगी
फिर किताबों के बीच रखी रखी सूख गईं
कितनी तरह की प्रेम कहानियाँ
उन पर नमक घिस कर धूप दिखा दी है
ज़रुरत होगी तो तल कर परोस दी जाएँगी
और इतना कुछ फ़िसल हुआ हाथों से
क्योंकि नहीं आता था उन्हें कोई हुनर
ख़ाली मकान।मोहम्मद अल्वी
जाले तने हुए हैं घर में कोई नहीं
''कोई नहीं'' इक इक कोना चिल्लाता है
दीवारें उठ कर कहती हैं ''कोई नहीं''
''कोई नहीं'' दरवाज़ा शोर मचाता है
कोई नहीं इस घर में कोई नहीं लेकिन
कोई मुझे इस घर में रोज़ बुलाता है
रोज़ यहाँ मैं आता हूँ हर रोज़ कोई
मेरे कान में चुपके से कह जाता है
''कोई नहीं इस घर में कोई नहीं पगले
किस से मिलने रोज़ यहाँ तू आता है''
कहाँ तक वक़्त के दरिया को । शहरयार
कहाँ तक वक़्त के दरिया को हम ठहरा हुआ देखें
ये हसरत है कि इन आँखों से कुछ होता हुआ देखें
बहुत मुद्दत हुई ये आरज़ू करते हुए हम को
कभी मंज़र कहीं हम कोई अन-देखा हुआ देखें
सुकूत-ए-शाम से पहले की मंज़िल सख़्त होती है
कहो लोगों से सूरज को न यूँ ढलता हुआ देखें
हवाएँ बादबाँ खोलीं लहू-आसार बारिश हो
ज़मीन-ए-सख़्त तुझ को फूलता-फलता हुआ देखें
धुएँ के बादलों में छुप गए उजले मकाँ सारे
ये चाहा था कि मंज़र शहर का बदला हुआ देखें
हमारी बे-हिसी पे रोने वाला भी नहीं कोई
चलो जल्दी चलो फिर शहर को जलता हुआ देखें
ख़राब टेलीविज़न पर पसंदीदा प्रोग्राम देखते हुए | सत्यम तिवारी
दीवारों पर उनके लिए कोई जगह न थी
और नए का प्रदर्शन भी आवश्यक था
इस तरह वे बिल्लियों के रास्ते में आए
और वहाँ से हटने को तैयार न हुए
यहीं से उनकी दुर्गति शुरू हुई
उनका सुसज्जित थोबड़ा बिना ईमान के डर से बिगड़ गया
अपने आधे चेहरे से आदेशवत हँसते हुए
वे बिल्कुल उस शोकाकुल परिवार की तरह लगते
जिनके घर कोई नेता खेद व्यक्त करने पहुँच जाता है
बाक़ी बचे आधे में वे कुछ कुछ रुकते फिर दरक जाते
जब हम उन्हें देख रहे होते हैं
वे किसे देख रहे होते हैं
ये सचमुच देखे जाने का विषय है
क्या सात बजकर तीस मिनट पर
एक अधपकी कच्ची नींद लेते हुए
उन्हें अचानक याद आता होगा
कि यह उनके पसंदीदा प्रोग्राम का वक़्त है
या हर रविवार दोपहर बारह के आस-पास
प्रसारित होती हुई कोई फ़ीचर फ़िल्म या कार्यक्रम चित्रहार देख कर
उनकी ज़िन्दगी रिवाइंड होती होगी
मसलन कॉलेज के दिनों में सुने हुए गीतों की याद
या गीत गाते हुए खाई गई क़समों की कसक
टीन के डब्बे नहीं हैं टेलीविजन
फिर भी उन्होंने वही चाहा जो घड़ियाँ चाहती रही हैं इतने दिनों तक
घड़ी दो घड़ी दिखना भर
यानी कोई उन्हें देखे सिर्फ़ देखने के मक़सद से
जिसे हम मज़ाक़ मज़ाक़ में टीवी देखना कह देते हैं
जब बिजली गुल हो
उस वक़्त उन्हें देखने से शायद कुछ ऐसा दिख जाए
जो तब नहीं दिखता जब टीवी देखना छोड़ कर
लोग तमाशा देखने लग जाते हैं जो टीवी पर आता है
फ़्री विल । दर्पण साह
अगस्त का महिना हमेशा जुलाई के बाद आता है,
ये साइबेरियन पक्षियों को नहीं मालूम
मैं कोई निश्चित समय-अंतराल नहीं रखता दो सिगरेटों के बीच
खाना ठीक समय पर खाता हूँ
और सोता भी अपने निश्चित समय पर हूँ
अपने निश्चित समय पर
क्रमशः जब नींद आती है और जब भूख लगती है
इससे ज़्यादा ठीक समय का ज्ञान नहीं मुझे
जब चीटियों की मौत आती है, तब उनके पंख उगते हैं
और जब मेरी इच्छा होती है तब दिल्ली में बारिश होती है
कई बार मैंने अपनी घड़ी में तीस भी बजाए हैं
मेरे कैलेंडर के कई महीने चालीस दिन के भी गये हैं
मैं यहाँ पर लीप ईयर की बात नहीं करूँगा
मुक्ति और आज़ादी में अंतस और वाह्य का अंतर होता है
प्रार्थना। अन्तोन्यो रिनाल्दी
अनुवाद : धर्मवीर भारती
सई साँझ
आँखें पलकों में सो जाती हैं
अबाबीलें घोसलों में
और ढलते दिन में से आती हुई
एक आवाज़ बतलाती है मुझे
अँधेरे में भी एक संपूर्ण दृष्टि है
मैं भी थक कर पड़ रहा हूँ
जैसे उदास घास की गोद में
फूल
धूप के साथ सोने के लिए
हवा हमारी रखवाली करे—
हमें जीत ले यह आस्मान की
निचाट ज़िंदगी जो हर दर्द को धारण करती है
लगता नहीं है दिल मिरा उजड़े दयार में । बहादुर शाह ज़फ़र
लगता नहीं है दिल मिरा उजड़े दयार में
किस की बनी है आलम-ए-ना-पाएदार में
इन हसरतों से कह दो कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़-दार में
काँटों को मत निकाल चमन से ओ बाग़बाँ
ये भी गुलों के साथ पले हैं बहार में
बुलबुल को बाग़बाँ से न सय्याद से गिला
क़िस्मत में क़ैद लिक्खी थी फ़स्ल-ए-बहार में
कितना है बद-नसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
घास । कार्ल सैंडबर्ग
अनुवाद : धर्मवीर भारती
आस्टरलिज़ हो या वाटरलू
लाशों का ऊँचे से ऊँचा ढेर हो—
दफ़ना दो; और मुझे अपना काम करने दो!
मैं घास हूँ, मैं सबको ढँक लूँगी
और युद्ध का छोटा मैदान हो या बड़ा
और युद्ध नया हो या पुराना
ढेर ऊँचे से ऊँचा हो, बस मुझे मौक़ा भर मिले
दो बरस, दस बरस—और फिर उधर से
गुज़रने वाली बस के मुसाफ़िर
पूछेंगे : यह कौन सी जगह है?
हम कहाँ से होकर गुज़र रहे हैं?
यह घास का मैदान कैसा है?
मैं घास हूँ
सबको ढँक लूँगी!
जो उलझकर रह गई है फ़ाइलों के जाल में । अदम गोंडवी
जो उलझकर रह गई है फ़ाइलों के जाल में
गाँव तक वह रौशनी आएगी कितने साल में
बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गई
रमसुधी की झोंपड़ी सरपंच की चौपाल में
खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गए
हमको पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में
जिसकी क़ीमत कुछ न हो इस भीड़ के माहौल में
ऐसा सिक्का ढालिए मत जिस्म की टकसाल में
आस्था | प्रियाँक्षी मोहन
इस दुनिया को युद्धों ने उतना
तबाह नहीं किया
जितना तबाह कर दिया
प्यार करने की झूठी तमीज़ ने
प्यार जो पूरी दुनिया में
वैसे तो एक सा ही था
पर उसे करने की सभी ने
अपनी अपनी शर्त रखी
और प्यार को कई नाम,
कविताओं, कहानियों,
फूलों, चांद तारों और
जाने किन किन
उपमाओं में बांट दिया
जबकि प्यार को उतना ही नग्न
और निहत्था होना था
जितना किसी पर अटूट
आस्था रखना होता है
वह सच्ची आस्था
जिसको आज तक कोई
तमीज़,तावीज़ या तागा
नहीं तोड़ सके।
अनुभव | नीलेश रघुवंशी
तो चलूँ मैं अनुभवों की पोटली पीठ पर लादकर बनने लेखक
लेकिन मैंने कभी कोई युद्ध नहीं देखा
खदेड़ा नहीं गया कभी मुझे अपनी जगह से
नहीं थर्राया घर कभी झटकों से भूकंप के
पानी आया जीवन में घड़ा और बारिश बनकर
विपदा बनकर कभी नहीं आई बारिश
दंगों में नहीं खोया कुछ भी न खुद को न अपनों को
किसी के काम न आया कैसा हलका जीवन है मेरा
तिस पर
मुझे कागज़ की पुड़िया बाँधना नहीं आता
लाख कोशिश करूँ सावधानी बरतूँ खुल ही जाती है पुड़िया
पुड़िया चाहे सुपारी की हो या हो जलेबी की
नहीं बँधती तो नहीं बँधती मुझसे कागज़ की पुड़िया नहीं सधती
अगर मैं लकड़हारा होती तो कितने करीब होती जंगल के
होती मछुआरा तो समुद्र मेरे आलिंगन में होता
अगर अभिनय आता होता मुझे तो एक जीवन में जीती कितने जीवन
जीवन में मलाल न होता राजकुमारी होती तो कैसी होती
और तो और अगले ही दिन लकड़हारिन बनकर घर-घर लकड़ी पहुँचाती
अगर मैं जादूगर होती तो
पल-भर में गायब कर देती सिंहासन पर विराजे महाराजा दुःख को
सचमुच कंचों की तरह चमका देती हर एक का जीवन
सोचती बहुत हूँ लेकिन कर कुछ नहीं पाती हूँ
मेरा जीवन न इस पार का है न उस पार का
तो कैसे निकलूं मैं
अनुभवों की पोटली पीठ पर लादकर बनने लेखक ?
स्त्री का चेहरा। अनीता वर्मा
इस चेहरे पर जीवन भर की कमाई दिखती है
पहले दुख की एक परत
फिर एक परत प्रसन्नता की
सहनशीलता की एक और परत
एक परत सुंदरता
कितनी किताबें यहाँ इकट्ठा हैं
दुनिया को बेहतर बनाने का इरादा
और ख़ुशी को बचा लेने की ज़िद
एक हँसी है जो पछतावे जैसी है
और मायूसी उम्मीद की तरह
एक सरलता है जो सिर्फ़ झुकना जानती है
एक घृणा जो कभी प्रेम का विरोध नहीं करती
आईने की तरह है स्त्री का चेहरा
जिसमें पुरुष अपना चेहरा देखता है
बाल सँवारता है मुँह बिचकाता है
अपने ताक़तवर होने की शर्म छिपाता है
इस चेहरे पर जड़ें उगी हुई हैं
पत्तियाँ और लतरें फैली हुई हैं
दो-चार फूल हैं अचानक आई हुई ख़ुशी के
यहाँ कभी-कभी सूरज जैसी एक लपट दिखती है
और फिर एक बड़ी-सी ख़ाली जगह