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Pratidin Ek Kavita
Nayi Dhara Radio
953 episodes
17 hours ago
कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
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कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
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Pansokha Hai Indradhanush | Madan Kashyap
Pratidin Ek Kavita
6 minutes
1 week ago
Pansokha Hai Indradhanush | Madan Kashyap

पनसोखा है इन्द्रधनुष - मदन कश्यप 


पनसोखा है इन्द्रधनुष


आसमान के नीले टाट पर मखमली पैबन्द की तरह फैला है।

 कहीं यह तुम्हारा वही सतरंगा दुपट्टा तो नहीं 

जो कुछ ऐसे ही गिर पड़ा था मेरे अधलेटे बदन पर 

तेज़ साँसों से फूल-फूल जा रहे थे तुम्हारे नथने 

लाल मिर्च से दहकते होंठ धीरे-धीरे बढ़ रहे थे मेरी ओर 

एक मादा गेहूँअन फुंफकार रही थी 

क़रीब आता एक डरावना आकर्षण था

 मेरी आत्मा खिंचती चली जा रही थी जिसकी ओर 

मृत्यु की वेदना से ज़्यादा बड़ी होती है जीवन की वेदना


दुपट्टे ने क्या मुझे वैसे ही लपेट लिया था जैसे आसमान को लपेट रखा है।

 पनसोखा है इन्द्रधनुष 

बारिश रुकने पर उगा है या बारिश रोकने के लिए उगा है


बारिश को थम जाने दो 

बारिश को थम जाना चाहिए

प्यार को नहीं थमना चाहिए


क्या तुम वही थीं 


जो कुछ देर पहले आयी थीं इस मिलेनियम पार्क में


सीने से आईपैड चिपकाए हुए


वैसे किस मिलेनियम से आयी थीं तुम 

प्यार के बाद कोई वही कहाँ रह जाता है जो वह होता है


धीरे-धीरे धीमी होती गयी थी तुम्हारी आवाज़  

क्रियाओं ने ले ली थी मनुहारों की जगह 

ईश्वर मंदिर से निकलकर टहलने लगा था पार्क में


धीरे-धीरे ही मुझे लगा था


तुम्हारी साँसों से बड़ा कोई संगीत नहीं 

तुम्हारी चुप्पी से मुखर कोई संवाद नहीं 

तुम्हारी विस्मृति से बेहतर कोई स्मृति नहीं

 पनसोखा है इन्द्रधनुष


जिस प्रक्रिया से किरणें बदलती हैं सात रंगों में 

उसी प्रक्रिया से रंगहीन किरणों से बदल जाते हैं सातों रंग


होंठ मेरे होंठों के बहुत क़रीब आये


मैंने दो पहाड़ों के बीच की सूखी नदी में छिपा लिया अपना सिर


बादल हमें बचा रहे थे सूरज के ताप से 

पाँवों के नीचे नर्म घासों के कुचलने का एहसास हमें था 

दुनिया को समझ लेना चाहिए था


हम मांस के लोथड़े नहीं प्यार करने वाले दो ज़िंदा लोग थे

 महज़ चुम्बन और स्पर्श नहीं था हमारा प्यार 

 वह कुछ उपक्रमों और क्रियाओं से हो सम्पन्न नहीं होता था


हम इन्द्रधनुष थे लेकिन पनसोखे नहीं 

अपनी-अपनी देह के भीतर ढूँढ़ रहे थे अपनी-अपनी देह 

बारिश की बूँदें जितनी हमारे बदन पर थीं उससे कहीं अधिक हमारी आत्मा में


जिस नैपकिन से पोंछा था तुमने अपना चेहरा मैंने उसे कूड़ेदान में नहीं डाला था 

दहकते अंगारे से तुम्हारे निचले होंठ पर तब भी बची रह गयी थी एक मोटी-सी बूँद 

मैं उसे अपनी तर्जनी पर उठा लेना चाहता था पर निहारता ही रह गया 

अब कविता में उसे छूना चाह रहा हूँ तो अँगुली जल रही है।


Pratidin Ek Kavita
कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।