ग्रंथों का अपने जीवन में किस प्रकार उपयोग किया जाए, वह इस दोहे के माध्यम से प्रस्तुत है।
Written & Recited by © Copyright नीरज कुमार 'पाठक'
इस दोहे के माध्यम से यह ज्ञात होता है कि हमें दूसरों के दोषों को देखने एवं सुनने से बचना चाहिए और दूसरों के दोषों के देखने से पहले अपने दोषों को देखना चाहिए। जिससे कि स्वयं का आत्मिक विकास संभव हो सके।
इस दोहे में दुष्टों और सज्जनों की तुलना की गई है और बताया गया कि किस प्रकार सज्जन व्यक्ति हमारे जीवन विकास में सहायक होते हैं।
आइए जानते है कि गंगा स्नान या तीर्थ भ्रमण करने से कैसे लाभ हो सकता है।
इस दोहे के माध्यम से समाज में फैले बुराईयों पर प्रकाश डालेगें साथ ही इसके कारण एवं निवारण पर चर्चा करेगें, कैसे इस समाज का कल्याण संभव है?
इस दोहे के माध्यम से हम संतों एवं सज्जनों की महत्व को जानेगें और जानेगें कि वो क्यों और कैसे हमारी मदद करते है?
इस संसार में सेवा, प्रत्येक प्राणी का नैसर्गिक धर्म है। हम सब जाने-अनजाने कहीं न कहीं, सेवा में लगे हुए है। चाहे हम सेवा प्रेम से करें या द्वेष से, सेवा तो हमें करनी ही होगी, न चाहते हुए भी। अगर हमें सेवा करनी ही है तो क्यों उसे ईश्वर के निमित्त की जाए। इस दोहे के माध्यम से यह जानने की कोशिश करते हैं।