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नमस्ते दोस्तों, मैं आपका होस्ट हूँ, और आज हम लेकर आए हैं एक ऐसी फिल्म की बात, जो न सिर्फ़ मनोरंजन करती है, बल्कि हमें सोचने पर मजबूर भी करती है। हम बात कर रहे हैं 2017 में रिलीज़ हुई फिल्म "न्यूटन" की, जिसमें राजकुमार राव ने मुख्य भूमिका निभाई है। यह फिल्म भारत के लोकतंत्र की जटिलताओं, नक्सल प्रभावित क्षेत्रों की कठिनाइयों और एक इंसान की ईमानदारी की लड़ाई को बखूबी दर्शाती है। तो चलिए, बिना देर किए, डूब जाते हैं इस कहानी की गहराइयों में और समझते हैं कि न्यूटन कुमार की जिद और सिद्धांतों ने कैसे एक साधारण सरकारी क्लर्क को असाधारण बना दिया।
परिचय: न्यूटन कुमार की दुनिया
फिल्म की शुरुआत होती है न्यूटन कुमार (राजकुमार राव) से, जो एक साधारण सरकारी क्लर्क है, लेकिन उसकी सोच और सिद्धांत उसे सबसे अलग बनाते हैं। न्यूटन, जिसने अपना नाम नूतन से बदलकर न्यूटन रख लिया, क्योंकि स्कूल में बच्चे उसका मज़ाक उड़ाते थे, एक दलित परिवार से ताल्लुक रखता है। उसके माता-पिता उसकी शादी एक ऐसी लड़की से करवाना चाहते हैं, जिसके साथ मोटी दहेज मिले, लेकिन न्यूटन इसके खिलाफ खड़ा हो जाता है। वह कहता है, "नियमों के मुताबिक, लड़की कम से कम बालिग तो होनी चाहिए, शादी से पहले उसकी पढ़ाई पूरी होनी चाहिए।" उसकी यह जिद हमें बताती है कि वह कितना नियमों और सिद्धांतों से बंधा हुआ इंसान है।
न्यूटन की ज़िंदगी तब बदलती है, जब उसे छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित जंगलों में चुनाव ड्यूटी के लिए भेजा जाता है। यह क्षेत्र, जो खनिजों से भरा हुआ है, नक्सलियों और माओवादियों का गढ़ है, जहाँ पिछले तीन दशकों से सरकार के खिलाफ सशस्त्र क्रांति चल रही है। यहाँ चुनाव करवाना किसी जंग लड़ने से कम नहीं। न्यूटन को यह ड्यूटी इसलिए मिलती है, क्योंकि वहाँ का मुख्य अधिकारी दिल की बीमारी के कारण जाने से मना कर देता है। चुनाव प्रशिक्षक (संजय मिश्रा) न्यूटन को सलाह देते हैं, "अपने काम पर ध्यान दो, देश अपने आप तरक्की कर लेगा। हर बीमारी का इलाज तुम्हें नहीं करना।" लेकिन न्यूटन की ईमानदारी और जिद उसे हर मुश्किल को ठीक करने के लिए प्रेरित करती है।
कहानी: जंगल में लोकतंत्र की जंग
न्यूटन जब छत्तीसगढ़ के इस खतरनाक इलाके में पहुँचता है, तो उसका सामना होता है सीआरपीएफ के असिस्टेंट कमांडेंट आत्मा सिंह (पंकाज त्रिपाठी) से, जो पूरी तरह से निराश और सनकी हो चुका है। आत्मा सिंह का मानना है कि स्थानीय लोग वोटिंग की परवाह नहीं करते और उनकी जान जोखिम में डालने का कोई मतलब नहीं। वह न्यूटन को ताने मारते हुए कहता है, "यहाँ जंगल में लोकतंत्र का ड्रामा करने से क्या फायदा? ये लोग वोट डालने नहीं आएँगे, और हमारी जान पर बन आएगी।" लेकिन न्यूटन अपनी ड्यूटी को लेकर अडिग है। वह आत्मा सिंह को नियमों की किताब दिखाते हुए कहता है, "मेरा काम है चुनाव करवाना, और मैं इसे हर हाल में करूँगा।"
न्यूटन अपनी टीम के साथ 8 किलोमीटर पैदल चलकर मतदान केंद्र तक पहुँचता है। वहाँ पहुँचकर उसे निराशा होती है, क्योंकि कोई भी वोटर वोट डालने नहीं आता। ऊपर से आत्मा सिंह और उसकी टीम स्थानीय लोगों को नक्सली समझकर बुरा बर्ताव करती है। खासकर मलको (अंजलि पाटिल), जो एक आदिवासी ब्लॉक लोकल ऑफिसर है, को आत्मा सिंह बार-बार अपमानित करता है। न्यूटन इस बर्ताव के खिलाफ रिपोर्ट लिखता है, लेकिन हालात नहीं बदलते।
जब एक विदेशी पत्रकार मतदान केंद्र पर पहुँचता है, तो सुरक्षा बल गाँव वालों को जबरदस्ती वोट डालने के लिए लाते हैं। लेकिन न्यूटन को जल्दी ही पता चलता है कि इन लोगों को चुनाव का मतलब ही नहीं पता। कोई सोचता है कि वोट डालने से पैसे मिलेंगे, तो कोई अपने काम के लिए उचित मेहनताना माँगता है। न्यूटन उन्हें समझाने की कोशिश करता है, लेकिन नाकाम रहता है।
इस बीच आत्मा सिंह, जो अब तंग आ चुका है, न्यूटन को धक्का देकर हटा देता है और गाँव वालों को शर्मिंदा करते हुए कहता है, "ये अफसर अपनी जान जोखिम में डालकर तुम्हारे लिए आए हैं, इन्हें खाली हाथ मत लौटाओ। ये वोटिंग मशीन एक खिलौना है, इसमें हाथी, साइकिल वगैरह के चिह्न हैं, जो पसंद हो वो दबा दो।" यह सुनकर न्यूटन का दिल टूट जाता है, क्योंकि वह जानता है कि ये लोग न तो पार्टियों को जानते हैं, न ही अपने वोट की अहमियत को। विदेशी पत्रकार को बस भारत के लोकतंत्र की कहानी मिल जाती है, लेकिन असल में यह एक खोखला प्रदर्शन है।
चरमोत्कर्ष: सिद्धांतों की लड़ाई
फिल्म का चरमोत्कर्ष तब आता है, जब न्यूटन को तय समय तक मतदान केंद्र पर रुकना होता है, लेकिन एक नक्सली हमले की वजह से उसे वहाँ से भागना पड़ता है। बाद में उसे पता चलता ह
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