यह श्लोक श्रीमद्भगवद गीता के 17.28 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण अश्रद्धा से किए गए कर्मों का वर्णन करते हुए कहते हैं:
"हे पार्थ, जो यज्ञ, दान, तप और अन्य कर्म श्रद्धा के बिना किए जाते हैं, वे 'असत्' माने जाते हैं। ऐसे कर्म न तो इस जीवन में फलकारी होते हैं और न ही मरने के बाद।"
भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह स्पष्ट करते हैं कि जब कोई व्यक्ति बिना श्रद्धा और विश्वास के कोई धार्मिक या पवित्र कार्य करता है, तो वह कार्य अधूरा और निष्फल होता है। ऐसे कर्मों का कोई वास्तविक लाभ नहीं होता, न ही वे आत्मा के उन्नति के लिए कारगर होते हैं।
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यह श्लोक श्रीमद्भगवद गीता के 17.27 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण "सत्" शब्द के प्रयोग के बारे में कहते हैं:
"यज्ञ, तप और दान के द्वारा जो स्थिरता प्राप्त होती है, उसे 'सत्' शब्द से ही अभिहित किया जाता है। इसी प्रकार, जो कर्म इन उद्देश्यों के लिए किए जाते हैं, वे भी 'सत्' ही माने जाते हैं।"
भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह समझा रहे हैं कि यज्ञ (धार्मिक अनुष्ठान), तप (आध्यात्मिक साधना) और दान (सामाजिक सहायता) जैसे कर्म जब निस्वार्थ और उच्च उद्देश्य के लिए किए जाते हैं, तो वे 'सत्' के रूप में पहचाने जाते हैं। यह शब्द ऐसे कार्यों को इंगीत करता है जो सत्य, धर्म और भलाई के प्रति समर्पित होते हैं।
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यह श्लोक श्रीमद्भगवद गीता के 17.26 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण "सत्" शब्द के महत्व और इसके उपयोग का वर्णन करते हुए कहते हैं:
"‘सत्’ शब्द का उपयोग सद्भाव (सत्प्रवृत्ति) और साधुभाव (पवित्रता और सच्चाई) के संदर्भ में किया जाता है। हे पार्थ (अर्जुन), यह शब्द प्रशंसनीय और श्रेष्ठ कर्मों में भी प्रयोग होता है।"
भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह स्पष्ट करते हैं कि ‘सत्’ सत्य, शुद्धता और उत्कृष्टता का प्रतीक है। यह शब्द उन कर्मों को इंगित करता है जो धर्म, सत्य और आध्यात्मिकता के अनुरूप होते हैं। ‘सत्’ का प्रयोग उन कार्यों के लिए होता है जो समाज और आत्मा के कल्याण के लिए किए जाते हैं।
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यह श्लोक श्रीमद्भगवद गीता के 17.25 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण "तत्" शब्द के महत्व और इसके उपयोग को समझाते हुए कहते हैं:
"मोक्ष की इच्छा रखने वाले (आत्मज्ञान प्राप्त करने की कामना करने वाले) लोग फल की अभिलाषा किए बिना, 'तत्' शब्द का उच्चारण करते हुए, यज्ञ, तप और दान की विविध क्रियाएँ करते हैं।"
भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह समझा रहे हैं कि 'तत्' शब्द त्याग और निस्वार्थता का प्रतीक है। जब कोई व्यक्ति अपने कार्यों को फल की अपेक्षा किए बिना, केवल मोक्ष प्राप्ति और परमात्मा के प्रति समर्पण की भावना से करता है, तो उसके कार्य शुद्ध और आध्यात्मिक उन्नति के लिए होते हैं।
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यह श्लोक श्रीमद्भगवद गीता के 17.24 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण "ॐ" के महत्व और उसके उपयोग का वर्णन करते हुए कहते हैं:
"इसलिए 'ॐ' उच्चारण के साथ, यज्ञ, दान और तप की क्रियाएँ वैदिक विधानों के अनुसार प्रारंभ की जाती हैं, जैसा कि ब्रह्मविद्या में पारंगत लोग करते हैं।"
भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह समझा रहे हैं कि 'ॐ' परमात्मा का प्रतीक है और यह वैदिक कर्मों को पवित्र और प्रभावी बनाने के लिए आवश्यक है। यज्ञ, दान और तप जैसे कार्य जब श्रद्धा और विधिपूर्वक 'ॐ' के साथ किए जाते हैं, तो वे अधिक शुभ और फलदायी हो जाते हैं।
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यह श्लोक श्रीमद्भगवद गीता के 17.23 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण "ॐ तत्सत्" के महत्व का वर्णन करते हुए कहते हैं:
"ॐ, तत् और सत्—ये ब्रह्म के तीन नाम हैं, जो प्राचीन समय से स्मरण किए गए हैं। इन्हीं के द्वारा ब्राह्मण, वेद और यज्ञ की रचना की गई थी।"
भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह समझा रहे हैं कि ये तीन शब्द (ॐ, तत् और सत्) ब्रह्म के पवित्र और शाश्वत स्वरूप को व्यक्त करते हैं। ये शब्द न केवल वैदिक परंपराओं का मूल आधार हैं, बल्कि यज्ञ, तप और दान जैसे कर्मों को पवित्र और फलदायी बनाने के लिए भी महत्वपूर्ण हैं।
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यह श्लोक श्रीमद्भगवद गीता के 17.22 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण तामसी दान का वर्णन करते हुए कहते हैं:
"जो दान अनुचित स्थान और समय पर, अयोग्य व्यक्ति को, बिना आदर और सम्मान के, या तिरस्कारपूर्वक दिया जाता है, वह तामसी दान कहलाता है।"
भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह बताते हैं कि तामसी दान अज्ञान, अहंकार और असंवेदनशीलता से प्रेरित होता है। ऐसा दान न तो दाता के लिए पुण्य का कारण बनता है और न ही प्राप्तकर्ता के लिए कोई वास्तविक सहायता करता है। यह दान धर्म और निस्वार्थता के सिद्धांतों के विपरीत है।
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यह श्लोक श्रीमद्भगवद गीता के 17.21 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण राजसी दान का वर्णन करते हुए कहते हैं:
"जो दान प्रत्युपकार (वापसी में कुछ पाने) की इच्छा से, या किसी फल की कामना से, अथवा अनिच्छा और कष्टपूर्वक दिया जाता है, वह दान राजसी माना गया है।"
भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह समझाते हैं कि राजसी दान स्वार्थ और दिखावे से प्रेरित होता है। यह दान केवल बदले में लाभ पाने या प्रशंसा अर्जित करने के उद्देश्य से दिया जाता है, और इसमें सच्ची श्रद्धा या निस्वार्थता नहीं होती। ऐसे दान से आत्मिक उन्नति नहीं होती।
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यह श्लोक श्रीमद्भगवद गीता के 17.20 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण सात्त्विक दान का वर्णन करते हुए कहते हैं:
"जो दान यह सोचकर दिया जाता है कि देना कर्तव्य है, बिना किसी प्रत्युपकार (वापसी में कुछ पाने) की इच्छा के, उचित स्थान, समय और योग्य पात्र को दिया गया दान सात्त्विक माना गया है।"
भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह समझाते हैं कि सात्त्विक दान निस्वार्थ और उचित भावना से प्रेरित होता है। ऐसा दान बिना किसी स्वार्थ या दिखावे के, केवल धर्म और कर्तव्य के निर्वाह के लिए दिया जाता है। यह दान आत्मिक उन्नति और समाज कल्याण के लिए महत्वपूर्ण है।
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यह श्लोक श्रीमद्भगवद गीता के 17.19 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण तामसी तप के लक्षणों का वर्णन करते हुए कहते हैं:
"जो तप मूढ़ता के कारण, स्वयं को कष्ट देकर, अथवा दूसरों को हानि पहुँचाने के उद्देश्य से किया जाता है, उसे तामसी तप कहा गया है।"
भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह समझाते हैं कि तामसी तप न केवल अनुचित है, बल्कि यह आत्मघातक और दूसरों के प्रति दुर्भावनापूर्ण होता है। ऐसा तप न तो आत्मिक उन्नति में सहायक होता है और न ही इससे कोई सकारात्मक परिणाम प्राप्त होता है। यह तप अज्ञान और नकारात्मक भावनाओं से प्रेरित होता है।
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यह श्लोक श्री भगवद गीता के 17.18 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण राजसी तप के लक्षणों का वर्णन करते हुए कहते हैं:
"जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए, अथवा दंभ (अहंकार) के साथ किया जाता है, उसे राजसी तप कहा जाता है। ऐसा तप अस्थिर और नाशवान होता है।"
भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह स्पष्ट कर रहे हैं कि राजसी तप स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों से किया जाता है, जिसमें व्यक्ति अपने अहंकार की संतुष्टि और दूसरों से प्रशंसा प्राप्त करने की इच्छा रखता है। ऐसा तप स्थायी फल नहीं देता और आत्मिक उन्नति में सहायक नहीं होता।
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यह श्लोक श्री भगवद गीता के 17.17 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण तीन प्रकार के तपों (शारीरिक, वाचिक और मानसिक) के सात्त्विक स्वरूप का वर्णन करते हुए कहते हैं:
"जो तप श्रद्धा के साथ, उच्चतम समर्पण के भाव से, बिना किसी फल की आकांक्षा के, और पूर्ण आत्मसंयम के साथ किया जाता है, वह सात्त्विक तप कहलाता है।"
भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह समझा रहे हैं कि सात्त्विक तप वह है जो निस्वार्थ भाव से किया जाता है और जिसमें आत्मिक उन्नति और ईश्वर के प्रति समर्पण प्रमुख होते हैं। ऐसे तप में फल की आकांक्षा नहीं होती और यह व्यक्ति को आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाता है।
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यह श्लोक श्री भगवद गीता के 17.16 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण मानसिक तप के लक्षणों का वर्णन करते हुए कहते हैं:
"मन की प्रसन्नता, सौम्यता, मौन, आत्मसंयम और भावनाओं की शुद्धि—ये सभी मानसिक तप के लक्षण होते हैं।"
भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह बता रहे हैं कि मानसिक तप केवल बाहरी आचार-व्यवहार से नहीं, बल्कि आंतरिक शांति, संयम, और सकारात्मक मानसिकता से होता है। यह तप व्यक्ति को आंतरिक संतुलन और मानसिक शुद्धता प्रदान करता है, जिससे व्यक्ति आत्मिक उन्नति की ओर बढ़ता है।
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यह श्लोक श्री भगवद गीता के 17.15 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण वाणी के तप के लक्षणों का वर्णन करते हुए कहते हैं:
"जो वाक्य किसी को दुखी नहीं करते, सत्य होते हैं, प्रिय और हितकारी होते हैं, और जिसमें स्वाध्याय और ज्ञान का अभ्यास शामिल होता है, वह वाणी का तप कहलाता है।"
भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह बता रहे हैं कि वाणी का तप केवल शब्दों के नियंत्रण से नहीं, बल्कि उन शब्दों के गुणात्मक उपयोग से होता है, जो किसी के दिल को चोट नहीं पहुँचाते, सत्य होते हैं और दूसरों के लिए फायदेमंद होते हैं। स्वाध्याय और ज्ञान में निहित वाणी भी एक महत्वपूर्ण तप है।
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यह श्लोक श्री भगवद गीता के 17.14 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण शरीर के तप के लक्षणों के बारे में बताते हुए कहते हैं:
"देवों, ब्राह्मणों, गुरुओं और ज्ञानी व्यक्तियों का पूजन, शुद्धता, ईमानदारी, ब्रह्मचर्य और अहिंसा—ये शारीरिक तप के लक्षण होते हैं।"
भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह स्पष्ट कर रहे हैं कि शरीर का तप केवल बाहरी कठिनाइयों या योगाभ्यास तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें सही आचार-व्यवहार, शुद्धता, अहिंसा और उच्च आत्मिक गुणों को अपनाना शामिल है। ये तप शारीरिक और मानसिक शुद्धता को बढ़ाते हैं और एक व्यक्ति को उच्चतर मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं।
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यह श्लोक श्री भगवद गीता के 17.13 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण तामसी यज्ञ के बारे में बताते हुए कहते हैं:
"जो यज्ञ विधि के बिना, मंत्रों के बिना, बिना दक्षिणा (भेंट) के और श्रद्धा के बिना किया जाता है, वह तामसी यज्ञ कहलाता है।"
भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह बता रहे हैं कि तामसी यज्ञ वह होते हैं जो न तो शास्त्रों और विधि के अनुसार किए जाते हैं, न ही उनमें श्रद्धा होती है। यह यज्ञ केवल ढोंग और आडंबर के रूप में किए जाते हैं, और इनका उद्देश्य केवल स्वार्थ और अनैतिकता होती है। तामसी यज्ञ में न तो कोई सही भावना होती है और न ही किसी धार्मिक या आध्यात्मिक उद्देश्य का पालन होता है।
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यह श्लोक श्री भगवद गीता के 17.12 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण राजसी यज्ञ के बारे में बताते हुए कहते हैं:
"जो यज्ञ केवल फल की प्राप्ति के लिए, अहंकार और दंभ के साथ किया जाता है, वही राजसी यज्ञ कहलाता है। ऐसा यज्ञ केवल नाम और दिखावे के लिए किया जाता है, न कि आत्मिक उन्नति या ईश्वर की भक्ति के लिए।"
भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह समझा रहे हैं कि राजसी यज्ञ वह होते हैं जो व्यक्तित्व के अहंकार और दिखावे के लिए किए जाते हैं, जहाँ फल की प्राप्ति प्रमुख उद्देश्य होती है। इस प्रकार के यज्ञ में ईमानदारी और निस्वार्थ भावनाओं का अभाव होता है।
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यह श्लोक श्री भगवद गीता के 17.11 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण सात्त्विक यज्ञ के बारे में बताते हुए कहते हैं:
"जो यज्ञ विधिपूर्वक, फल की आकांक्षा के बिना और केवल उसके समर्पण भाव से किया जाता है, वही सात्त्विक यज्ञ कहलाता है। ऐसा व्यक्ति पूरी श्रद्धा और आत्मसमर्पण के साथ यज्ञ करता है, बिना किसी फल की इच्छा के।"
भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह समझा रहे हैं कि सात्त्विक यज्ञ वह होता है जिसे निस्वार्थ भाव से किया जाता है, जिसमें फल की इच्छा नहीं होती, और वह केवल ईश्वर के प्रति समर्पण और श्रद्धा से किया जाता है। यह प्रकार का यज्ञ शुद्ध और पवित्र होता है, जो आत्मिक और मानसिक विकास में सहायक होता है।
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यह श्लोक श्री भगवद गीता के 17.10 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण तामसी आहार के लक्षणों का वर्णन करते हुए कहते हैं:
"जो आहार स्वादहीन, सड़ा हुआ, पूस (बासी) और बासी होने के कारण गंधयुक्त होता है, और जो उच्छिष्ट (अवशेष) और अशुद्ध होता है, वही तामसी आहार कहलाता है। ऐसे आहार तामसी प्रवृत्तियों के अनुरूप होते हैं।"
भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह स्पष्ट कर रहे हैं कि तामसी आहार वह होते हैं जो शारीरिक, मानसिक और आत्मिक दृष्टिकोण से हानिकारक होते हैं। ये आहार न केवल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं, बल्कि व्यक्ति के भीतर नकारात्मक ऊर्जा और मानसिक अशांति भी उत्पन्न करते हैं।
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यह श्लोक श्री भगवद गीता के 17.9 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण राजसी आहार के लक्षणों का वर्णन करते हुए कहते हैं:
"राजसी आहार वे होते हैं जो अत्यधिक तिक्त (कड़वे), अम्ल (खट्टे), लवण (नमकीन), उष्ण (गर्म), तीव्र (तीखा), रूक्ष (कठोर) और ज्वर उत्पन्न करने वाले होते हैं। ऐसे आहार दुख, शोक और इच्छाओं को उत्पन्न करने वाले होते हैं।"
भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह बता रहे हैं कि राजसी आहार व्यक्ति की मानसिक स्थिति और स्वभाव पर विपरीत प्रभाव डालते हैं। यह आहार शरीर और मन को उत्तेजित कर सकते हैं और व्यक्ति को दुःख, मानसिक अशांति और अनावश्यक इच्छाओं की ओर प्रवृत्त कर सकते हैं।
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