
यह श्लोक श्रीमद्भगवद गीता के 17.20 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण सात्त्विक दान का वर्णन करते हुए कहते हैं:
"जो दान यह सोचकर दिया जाता है कि देना कर्तव्य है, बिना किसी प्रत्युपकार (वापसी में कुछ पाने) की इच्छा के, उचित स्थान, समय और योग्य पात्र को दिया गया दान सात्त्विक माना गया है।"
भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह समझाते हैं कि सात्त्विक दान निस्वार्थ और उचित भावना से प्रेरित होता है। ऐसा दान बिना किसी स्वार्थ या दिखावे के, केवल धर्म और कर्तव्य के निर्वाह के लिए दिया जाता है। यह दान आत्मिक उन्नति और समाज कल्याण के लिए महत्वपूर्ण है।
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