वो भोर जब हवाएं कुछ कह रही थीं
तभी सांसों ने पहली दस्तक दी,
नभ ने खोले सम्भावनाओं के द्वार,
और एक परिंदा
नई उड़ानों के सपने लिए
इस धरा पर उतरा।
हर दिन एक प्रश्न बनकर
दहलीज पर बैठा रहा
क्या पाया इस जीवन में?
क्या रह गया अधूरा सा?
कभी चाह में कुछ पाने की,
कभी खोने के डर में उलझा रहा मन।
इस देह को मिली व्यस्तता
झूठ, छल और भ्रमजालों से
अपनों की बेरुखी में भी
कुछ अपनापन ढूंढता रहा।
मृत्यु को जानकर भी
जन्म से जूझता रहा जीवन भर
उस अनसुलझे रहस्य के साथ—
“क्यूं आया हूं इस धरा पर?”
भटकन बनी रही पथ की पहचान,
मंजिलें बदलती रहीं चुपचाप,
और जीवन कभी रेत सा फिसलता गया,
कभी सीप सा कुछ संजोने की चाह में।
हर मोड़ पर मंजिलें दूर होती रहीं,
राहें अनजानी, और थकान केवल आत्मा को छूती रही।
जो पाया, वह कम लगा,
जो चाहा, वह अधूरा ही रहा,
क्योंकि अंतहीन है
इच्छाओं का समंदर।
फिर भी, इस संसार से विदा लेने से पहले
हर कोई कुछ जोड़ना चाहता है
थोड़ी दौलत, थोड़ा नाम,
थोड़ी पहचान इस क्षणभंगुर यात्रा में।
लेकिन एक दिन
हर परिंदा जान ही जाता है—
सब कुछ पाने के बाद भी
जो अपनों तक लौट न सके,
वह सबसे ज्यादा खो बैठा।
इसलिए शायद
मानव जन्म का सार यही है—
कि हम समझ सकें
सच्चा सुख न बाहरी उड़ानों में है,
ना अर्जनों की भीड़ में,
बल्कि उन रिश्तों में है
जो हमें सचमुच
घर लौटने की राह दिखाते हैं।
-मुनीष भाटिया
मोहाली