
आँखें
कुछ दिनों से रातें बेचैन हैं, लगता है किसी ने मेरी निगाहों में अपना मकान बना लिया है। जहां देखु वहाँ सिर्फ़ एक चेहरा नज़र आता है । पलकें दुखने लगी हैं, जैसे उसने दीवारों पर कील ठोक कर कोई तस्वीर लगाई हो। शायद हमारी ही कोई तस्वीर हो ।
देर रात तक आँखें खुली रहती है, लगता है जैसे वो मेरी पलकों से झांक कर दुनिया देखती है और मैं हमेशा की तरह इंतज़ार करता रहता हूँ, की एक बार उस से मील सकूँ । नींद से आँखें बंद हों तो ख्वाबों में मिलने की सोचता हूँ। काफ़ी दिन हों गए हैं । मुझे लगने लगा है की वो अब असल ज़िंदगी में शायद कभी ना मिले, शायद मेरी आँखों से बाहर निकलने का उसका मन नहीं करता। उसको इन आँखों से दुनिया देखना पसंद है, यही सोच सोच कर नींद नहीं आती है और अब कुछ दिनों से धुँधला भी दिखने लगा है, शायद उसने पर्दे लगा लिए हैं.. पलकों से टपकते पानी को वो शायद बारिश समझ बैठी है
काश उसने मेरी आँखों से ख़ुद को देखते देखा होता