शिव पुराण के श्रीरुद्र संहिता के पाँचवें अध्याय में हिमालय और उनकी पत्नी मैना की अद्भुत तपस्या का वर्णन मिलता है। जब देवी सती ने अपने शरीर का त्याग किया और जगदंबा अंतर्धान हुईं, तब श्रीहरि विष्णु ने हिमालय और मैना को देवी जगदंबा की आराधना करने का उपदेश दिया।
दोनों ने सताईस वर्षों तक कठोर तप किया — चैत्रमास से प्रारंभ होकर नवमी और अमावस्या को व्रत, पूजा, दान और ब्राह्मण सेवा के माध्यम से उन्होंने देवी दुर्गा को प्रसन्न किया।
उनकी भक्ति और समर्पण से प्रसन्न होकर देवी जगदंबा स्वयं प्रकट हुईं और उन्हें वरदान दिया कि वे उनके घर पुत्री रूप में जन्म लेंगी — वही पुत्री आगे चलकर पार्वती बनीं, जो शिवजी की अर्धांगिनी बनीं।
यह अध्याय शक्ति की कृपा, भक्ति की गहराई और तप के फल का जीवंत उदाहरण है।
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शिव पुराण के श्रीरुद्र संहिता के इस अध्याय में बताया गया है कि जब सती ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ में भगवान शिव का अपमान सहन न कर योगाग्नि द्वारा अपना शरीर त्याग दिया, तब समस्त देवता विष्णु जी के साथ हिमालय के पास पहुँचे। उन्होंने हिमालय से प्रार्थना की कि देवी सती पुनः उनके घर जन्म लें और भगवान शिव की अर्धांगिनी बनें। श्रीविष्णु के वचनों से हिमालय अत्यंत प्रसन्न हुए और देवी जगदंबा की आराधना की।
इस प्रसंग में देवताओं द्वारा की गई जगदंबा उमा की भव्य स्तुति का वर्णन मिलता है — जिसमें उन्हें गायत्री, सावित्री, सरस्वती, लक्ष्मी और वेदों की अधिष्ठात्री देवी के रूप में संबोधित किया गया है।
यह अध्याय दर्शाता है कि देवी सती का पुनर्जन्म पार्वती के रूप में हुआ और कैसे उनके तप, भक्ति और शिव के प्रति अटूट प्रेम ने सम्पूर्ण सृष्टि को पुनः संतुलन प्रदान किया। यह कथा भक्ति, त्याग और शक्ति के दिव्य संगम की प्रतीक है।
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शिव पुराण के श्रीरुद्र संहिता के इस अध्याय में बताया गया है कि जब सती ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ में भगवान शिव का अपमान सहन न कर योगाग्नि द्वारा अपना शरीर त्याग दिया, तब समस्त देवता विष्णु जी के साथ हिमालय के पास पहुँचे। उन्होंने हिमालय से प्रार्थना की कि देवी सती पुनः उनके घर जन्म लें और भगवान शिव की अर्धांगिनी बनें।
श्रीविष्णु के वचनों से हिमालय अत्यंत प्रसन्न हुए और देवी जगदंबा की आराधना की। इस प्रसंग में देवताओं द्वारा की गई जगदंबा उमा की भव्य स्तुति का वर्णन मिलता है — जिसमें उन्हें गायत्री, सावित्री, सरस्वती, लक्ष्मी और वेदों की अधिष्ठात्री देवी के रूप में संबोधित किया गया है।
यह अध्याय दर्शाता है कि देवी सती का पुनर्जन्म पार्वती के रूप में हुआ और कैसे उनके तप, भक्ति और शिव के प्रति अटूट प्रेम ने सम्पूर्ण सृष्टि को पुनः संतुलन प्रदान किया। यह कथा भक्ति, त्याग और शक्ति के दिव्य संगम की प्रतीक है।
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शिव पुराण के श्रीरुद्र संहिता तृतीय खंड के इस अध्याय में बताया गया है कि पितरों की तीन कन्याएँ — मैना, धन्या और कालावती — शाप से मुक्त होकर पुनः अपने दिव्य स्वरूप को प्राप्त करती हैं। मैना की पुत्री पार्वती कठोर तपस्या के बाद भगवान शिव की प्राणवल्लभा बनती हैं, धन्या की पुत्री सीता श्रीरामचंद्र की पत्नी बनती हैं, और कालावती की पुत्री राधा श्रीकृष्ण के स्नेह में बंधकर उनकी प्रिया बनती हैं। यह कथा शिव पुराण में भगवती पार्वती के जन्म, तपस्या और दिव्य मिलन की पवित्र भूमिका को उजागर करती है। जो भी इस कथा को श्रद्धा-भाव से पढ़ता या सुनता है, उसे मोक्ष, यश, आयु और पुण्य की प्राप्ति होती है।
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“शिव पुराण – श्रीरुद्र संहिता” के इस प्रथम अध्याय हिमालय विवाह में बताया गया है कि देवी सती, जिन्होंने अपने पिता दक्ष के यज्ञ में शरीर त्याग किया था, पुनर्जन्म लेकर हिमवान पर्वत की पुत्री ‘मैना’ के रूप में जन्मीं। यह अध्याय इस दिव्य कथा का आरंभ है, जिसमें ब्रह्माजी नारद मुनि के प्रश्नों का उत्तर देते हुए हिमालय पर्वत की महिमा, उसकी पवित्रता, और देवताओं के आगमन का सुंदर वर्णन करते हैं।
देवताओं और पितरों के संवाद में यह निर्णय होता है कि हिमवान का विवाह मैना से होना चाहिए — जो मंगल स्वरूपिणी हैं और जिनका यह दिव्य मिलन भविष्य में देवी पार्वती के जन्म का कारण बनेगा। विवाह उत्सव का अद्भुत वर्णन इस अध्याय में किया गया है, जिसमें सभी देवी-देवता, स्वयं श्रीहरि विष्णु सहित, इस शुभ अवसर के साक्षी बनते हैं।
यह कथा न केवल हिमालय की पवित्रता का गुणगान करती है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि शिव–सती के प्रेम का पुनर्जन्म किस प्रकार होने वाला है। जो व्यक्ति इस कथा को श्रद्धाभाव से सुनता या पढ़ता है, उसे धर्म, ज्ञान और शांति की प्राप्ति होती है।
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शिव पुराण के सती खंड में देवी सती और भगवान शिव की दिव्य कथा का वर्णन है। इसमें दक्ष यज्ञ, देवी सती का आत्मत्याग, भगवान शिव का क्रोध, वीरभद्र का प्रकट होना और अंततः दक्ष का पुनर्जीवन शामिल है। यह कथा भक्तों को भक्ति, धैर्य और शिव कृपा की अद्भुत महिमा का अनुभव कराती है। इस अध्याय का पाठ करने से पापों से मुक्ति, यश, स्वर्ग और दीर्घायु की प्राप्ति होती है।"
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शिव द्वारा दक्ष को पुनर्जीवित करने का अध्याय - इस अध्याय में भगवान शिव की करुणा और क्षमा की लीला का अद्भुत वर्णन है। दक्ष के यज्ञ-विध्वंस और उसके परिणामस्वरूप हुए विनाश के बाद सभी देवता, ऋषि-मुनि और विष्णु भगवान शिव से क्षमा और कृपा की याचना करते हैं। भगवान शिव प्रसन्न होकर यज्ञ को पूर्ण करते हैं, देवताओं के घावों को भरते हैं और दक्ष को जीवनदान देते हैं। यह कथा क्षमा, करुणा और पुनरुत्थान का गहरा संदेश देती है।
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शिव पुराण के इस अध्याय में देवता और ऋषि-मुनि भगवान शिव के क्रोध को शांत करने के लिए विनम्रता से क्षमा याचना करते हैं। यह कथा दिखाती है कि केवल भगवान शिव की कृपा से ही विनाश से रक्षा संभव है।
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शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता के उनचालीसवें अध्याय में दधीचि ऋषि और क्षुव के विवाद, भगवान विष्णु की लीला तथा महर्षि दधीचि के शाप का अद्भुत प्रसंग मिलता है। इस कथा के श्रवण से अपमृत्यु का भय मिटता है, युद्ध में विजयश्री की प्राप्ति होती है और अंत में स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
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शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता द्वितीय खंड के अड़तीसवें अध्याय में दधीचि और क्षुव के बीच विवाद का वर्णन है। इस कथा में अहंकार, श्राप, भगवान शिव की महिमा और महामृत्युंजय मंत्र की दिव्य शक्ति का गहन वर्णन मिलता है। यह अध्याय हमें सिखाता है कि शिव की भक्ति और तपस्या से ही मोक्ष और कल्याण संभव है।
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शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता – द्वितीय खंड का सैंतीसवां अध्याय दक्ष प्रजापति के अंत का वर्णन करता है। वीरभद्र ने यज्ञशाला में घुसकर सभी देवताओं को परास्त किया और अंत में दक्ष का सिर काटकर यज्ञ कुंड में डाल दिया। यह प्रसंग शिवजी के अपमान और सती माता के त्याग के परिणामस्वरूप दक्ष के विनाश की कथा है।
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शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता – द्वितीय खंड, छत्तीसवाँ अध्याय
इस अध्याय में श्रीहरि विष्णु और वीरभद्र के बीच हुए भयानक युद्ध का वर्णन है। शिवजी के अपमान और देवी सती के अन्याय के कारण उत्पन्न यह संग्राम देवताओं और ऋषियों के लिए भयावह सिद्ध हुआ।
वीरभद्र और महाकाली ने अनेक देवताओं और मुनियों को दंडित किया तथा उनकी करनी के अनुसार उन्हें परिणाम भोगना पड़ा। यह अध्याय हमें सिखाता है कि शिव और सती का अपमान करने का परिणाम कितना गंभीर हो सकता है।
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शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता के पैंतीसवें अध्याय में वीरभद्र के प्रकट होने और यज्ञ मण्डप में उनके आगमन का दिव्य वर्णन है। दक्ष के अहंकार और शिव का अपमान करने के दुष्परिणामस्वरूप जब यज्ञ विनाश के कगार पर पहुँचता है, तब वीरभद्र और महाकाली अपनी विशाल सेना के साथ प्रकट होकर यज्ञशाला की ओर बढ़ते हैं। भयभीत दक्ष और देवता श्रीहरि विष्णु की शरण में जाकर रक्षा की प्रार्थना करते हैं। यह अध्याय दर्शाता है कि शिव की अवहेलना करने वाला कोई भी कर्म कभी सफल नहीं हो सकता।
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शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता – द्वितीय खंड के इस चौंतीसवें अध्याय में, वीरभद्र और महाकाली की सेनाओं के दक्ष यज्ञ की ओर बढ़ने पर यज्ञमण्डप में फैले भय और अपशकुनों का वर्णन है। आकाशवाणी के माध्यम से दक्ष के पापों का उद्घाटन होता है और भगवान विष्णु से जीवन रक्षा की प्रार्थना की जाती है। यह कथा शिवभक्ति, धर्म और कर्मफल के गूढ़ संदेश को उजागर करती है।
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"तेँतीसवाँ अध्याय – वीरभद्र और महाकाली का यज्ञशाला की ओर प्रस्थान" इस अध्याय में भगवान शिव के आदेश पर वीरभद्र और महाकाली की विशाल सेना के साथ यज्ञ विनाश के लिए प्रस्थान का वर्णन है। शिवगणों, भूत-पिशाचों और नव दुर्गाओं सहित असंख्य शक्तियाँ भगवान शिव के अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए यज्ञशाला की ओर बढ़ती हैं। यह दृश्य शक्ति, भक्ति और न्याय का अद्भुत संगम प्रस्तुत करता है।
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इस अध्याय में शिवजी के प्रचंड क्रोध का वर्णन है। जब सती माता ने यज्ञ में अपने अपमान से दुखी होकर देह त्याग दी, तब शिवगणों ने यह समाचार शिवजी को सुनाया। शिवजी अत्यंत क्रोधित हुए, उनकी जटा से वीरभद्र और महाकाली की उत्पत्ति हुई। वीरभद्र को आदेश दिया गया कि वह दक्ष यज्ञ को विध्वंस कर दे। इस अध्याय में क्रोध, न्याय और शिव की रौद्र लीला का वर्णन है।
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रुद्राष्टकम् भगवान शिव की स्तुति में रचित एक अद्भुत स्तोत्र है, जिसकी रचना गोस्वामी तुलसीदास जी ने की थी। यह स्तुति शिव जी के निर्गुण, निर्विकल्प और परमेश्वर स्वरूप का भावपूर्ण वर्णन करती है। जो भी भक्त सच्चे मन से इसका पाठ करता है, उस पर भगवान शंकर की कृपा अवश्य होती है।
'श्री शिव रुद्राष्टकम' स्तुति का पाठ, जानिए इसका हिंदी अर्थ और महत्व
भावपूर्ण उच्चारण के साथ रुद्राष्टकम् का पाठ प्रस्तुत किया गया है। नियमित रूप से इसका श्रवण करने से मानसिक शांति, ऊर्जा और भक्तिभाव की अनुभूति होती है।
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अध्याय नाम: एकतीसवां अध्याय – आकाशवाणी
इस अध्याय में शिव पुराण के अनुसार उस महान यज्ञ में उत्पन्न हुए संकट के समय हुई दिव्य आकाशवाणी का वर्णन किया गया है। यह आकाशवाणी दक्ष के अहंकार, भगवान शिव और माता सती के अपमान, और धर्म विरोधी कृत्यों की कड़ी निंदा करती है। इसमें बताया गया है कि शिव एवं सती के अपमान से समस्त ब्रह्मांड के लिए विनाशकारी परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं। यह अध्याय सती की महानता, शिव की सर्वोच्चता और यज्ञ के विध्वंस का स्पष्ट संकेत देता है।
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शिव और सती की प्रेम कथा
सती का योगाग्नि में देह त्याग | दक्ष यज्ञ का विध्वंस और शिवगणों का क्रोध | शिव पुराण कथा
इस भावुक और अत्यंत मार्मिक अध्याय में जानिए कैसे माता सती ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ में भगवान शिव का अपमान देखकर योगाग्नि में अपनी देह का त्याग किया। शिवगणों का भीषण आक्रमण, यज्ञ स्थल पर युद्ध, और सृष्टि में मचे हाहाकार ने पूरे ब्रह्मांड को हिला दिया।
यह कथा हमें भक्ति, सम्मान और अहंकार के विनाश का गहन संदेश देती है। देखिए कैसे सती के बलिदान ने आगे के घटनाक्रम की नींव रखी और शिव तांडव का आरंभ हुआ।
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"सती का आत्मदाह | दक्ष यज्ञ में शिव का अपमान और सती का त्याग | शिव पुराण कथा"
इस भावुक और अत्यंत मार्मिक अध्याय में जानिए कैसे माता सती ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ में भगवान शिव का घोर अपमान देखा और आहत होकर अपने प्राण त्यागने का कठोर निर्णय लिया। शिव निंदा का परिणाम, सती का क्रोध और आत्मदाह, और आगे आने वाली महाविनाश की शुरुआत — इस अध्याय में छिपा है भक्ति, सम्मान और धर्म की सच्ची गहराई का संदेश। देखिए कैसे सती का त्याग पूरे सृष्टि में हलचल मचा देता है।
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