"सती का आत्मदाह | दक्ष यज्ञ में शिव का अपमान और सती का त्याग | शिव पुराण कथा"
इस भावुक और अत्यंत मार्मिक अध्याय में जानिए कैसे माता सती ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ में भगवान शिव का घोर अपमान देखा और आहत होकर अपने प्राण त्यागने का कठोर निर्णय लिया। शिव निंदा का परिणाम, सती का क्रोध और आत्मदाह, और आगे आने वाली महाविनाश की शुरुआत — इस अध्याय में छिपा है भक्ति, सम्मान और धर्म की सच्ची गहराई का संदेश। देखिए कैसे सती का त्याग पूरे सृष्टि में हलचल मचा देता है।
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"सती का यज्ञ में जाना | शिवजी का मना करना और सती का हठ | शिव पुराण कथा"
इस अध्याय में जानिए कैसे माता सती अपने पिता दक्ष के यज्ञ में जाने का निर्णय लेती हैं, जबकि शिवजी उन्हें रोकते हैं। अपनी जिद पर अड़ी सती, शिवजी का आशीर्वाद लेकर, भव्य श्रृंगार और शिवगणों के साथ यज्ञ स्थल की ओर प्रस्थान करती हैं। मार्ग में गूंजते शिव के जयकार, और सती की महान भक्ति का यह अध्याय हमें अहंकार, प्रेम और धर्म का गहरा संदेश देता है। देखिए कैसे इस निर्णय ने आगे चलकर पूरे ब्रह्मांड में हलचल मचा दी।
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"दक्ष प्रजापति का यज्ञ | भगवान शिव का अपमान और दधीचि का शाप | शिव पुराण की दिव्य कथा"
इस भावुक और धर्ममयी कथा में जानिए कैसे प्रजापति दक्ष ने भगवान शिव को अपने महायज्ञ से निमंत्रण नहीं दिया, जिससे शिव का अपमान हुआ। महर्षि दधीचि का क्रोध, ऋषियों का त्याग, और अंततः ब्रह्मा और विष्णु द्वारा यज्ञ को पूरा करने का प्रयास—यह अध्याय धर्म, अहंकार और सच्चे श्रद्धा की गहराइयों को छूता है।
देखिए शिव पुराण के इस अध्याय में कैसे एक यज्ञ विवाद का कारण बन गया, और क्या हुआ दक्ष के यज्ञ का भविष्य?
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दक्ष का यज्ञ, भगवान शिव का अपमान और श्रापों का महा संग्राम | शिव पुराण कथा"
इस रोमांचक कड़ी में जानिए प्राचीन शिव पुराण की वह कथा जब प्रजापति दक्ष ने एक भव्य यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें भगवान शिव को निमंत्रण नहीं दिया गया। शिव का अपमान, सती का विरोध, और नंदी व दक्ष के बीच श्रापों का आदान-प्रदान – यह सब बनता है इस अध्याय का मुख्य आकर्षण।
श्रद्धा, अहंकार, और धर्म के टकराव को दर्शाने वाली यह कथा हमें नीति, मर्यादा और भक्ति का गहन संदेश देती है।
देखिए कैसे ब्रह्मा, विष्णु और देवगण भी इस धर्मसंकट में उलझ जाते हैं, और क्या होता है दक्ष यज्ञ का परिणाम।
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“पच्चीरावाँ अध्याय: ‘श्रीराम का सती के संदेह को दूर करना’—इस अध्याय में श्रीरामचन्द्र जी द्वारा माता सती को यह कथा सुनाकर उनके हृदय से संदेह और मोह दूर किए जाते हैं। शंकर–सती के पारस्परिक प्रेम एवं उनकी परिक्षा का भावपूर्ण विवरण, स्तुति–लीला के स्वरूपों को उजागर करता है।”
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इस अध्याय में सती द्वारा श्रीराम की परीक्षा लेने की कथा वर्णित है। जब सती को भगवान शिव की बातों पर संदेह हुआ, तब उन्होंने स्वयं सीता का रूप धारण कर श्रीराम की परीक्षा ली। इस परीक्षा के बाद श्रीराम ने सती को पहचान लिया, जिससे सती का भ्रम दूर हुआ। उन्होंने श्रीराम की महिमा को स्वीकार किया और उनके चरणों में प्रणाम किया। यह प्रसंग भक्तिरस, विनम्रता और आत्म-ज्ञान का बोध कराता है।
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इस अध्याय में देवी सती भगवान शिव से ज्ञान और मोक्ष की महिमा के बारे में जानने की इच्छा प्रकट करती हैं।
भगवान शिव, भक्तिपूर्वक उनकी जिज्ञासा शांत करते हुए भक्ति, ज्ञान, मोक्ष और उनके आपसी संबंधों का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हैं।
वे श्रद्धा, प्रेम, सेवा, आत्मसमर्पण जैसे नौ अंगों की भक्ति को श्रेष्ठ बताते हैं और यह स्पष्ट करते हैं कि बिना भक्ति के ज्ञान अधूरा है और बिना ज्ञान के भक्ति भी फलदायक नहीं होती।
अंत में देवी सती सभी शास्त्रों का सार पूछती हैं और भगवान शिव उन्हें विभिन्न शास्त्रों—तंत्र, यंत्र, इतिहास, ज्योतिष, वैदिक धर्म—की महत्ता समझाते हैं।
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इस अध्याय में देवी सती की इच्छा पर भगवान शिव उन्हें हिमालय पर्वत पर विहार के लिए ले जाते हैं। वर्षा ऋतु का सुहावना वातावरण देखकर देवी सती का मन प्रकृति में रमण करने को होता है। भगवान शिव उनकी भावना को समझते हुए उन्हें हिमालय लेकर जाते हैं। वहां दोनों कुछ समय प्रसन्नतापूर्वक विहार करते हैं और फिर अपने निवास स्थल कैलाश लौट आते हैं। यह अध्याय शिव-सती के प्रेम, सौंदर्य, अनुराग और दांपत्य जीवन के सौम्य पक्ष को दर्शाता है।
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शिव सती का प्रेम
शिव सती विहार
शिव सती की कथा
शिव सती विवाह के बाद
शिव पुराण हिंदी
शिव सती यात्रा
हिमालय में शिव सती
शिव कथा अध्याय 22
शिव सती का प्रेममय जीवन
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इस अध्याय में भगवान शिव और देवी सती के विवाह के पश्चात उनके कैलाश पर्वत पर आगमन, विदाई के प्रसंग, और उनके एकांत विहार का सुंदर चित्रण किया गया है। सती की तपस्या और शिवजी के प्रति उनका प्रेम, साथ ही शिवजी की प्रसन्नता व सती के सौंदर्य पर मोहित होना, दोनों के मिलन का एक भावुक और पूजनीय चित्र प्रस्तुत करता है।
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इस अध्याय में भगवान शिव और देवी सती के विवाह के पश्चात उनके कैलाश लौटने की कथा वर्णित है। विदाई के समय दक्ष द्वारा सम्मानपूर्वक आशीर्वाद, देवताओं द्वारा स्तुति, शिव-सती की शोभायात्रा और विवाह के महात्म्य का विस्तार से वर्णन किया गया है। यह अध्याय विवाह के धार्मिक महत्व और शिवभक्तों के लिए इस कथा के पुण्यफल की व्याख्या करता है।
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"इस अध्याय में ब्रह्मा जी नारद जी को बताते हैं कि दक्ष द्वारा भगवान शिव को अनेक उपहार प्रदान किए गए। विष्णु भगवान भी लक्ष्मी जी के साथ भगवान शिव की भक्ति भाव से आराधना करते हैं।
वे शिवजी को संपूर्ण सृष्टि का रचयिता, पालनकर्ता और रक्षक बताते हैं। सभी देवता और ऋषि मुनि भगवान शिव के गुणगान में स्तुति करते हैं और संसार के कल्याण की कामना करते हैं।"
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इस अध्याय में ब्रह्माजी कैलाश पर्वत जाकर भगवान शिव को प्रजापति दक्ष की स्वीकृति का समाचार देते हैं। शिवजी अत्यंत प्रसन्न होते हैं और विवाह हेतु तत्पर हो जाते हैं। नारद और ब्रह्मा जी विवाह का संदेश लेकर दक्ष के पास जाते हैं। शुभ मुहूर्त तय होते ही चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि को भगवान शिव देवी सती की बारात लेकर कैलाश पर्वत से निकलते हैं। इस भव्य विवाह यात्रा में भगवान विष्णु, देवी लक्ष्मी, सरस्वती सहित सभी देवता और ऋषि शामिल होते हैं।
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इस अध्याय में देवी सती की कठोर तपस्या का फल मिलता है। भगवान शिव स्वयं प्रकट होकर उन्हें दर्शन देते हैं और उनकी मनोकामना पूर्ण करते हैं। सती भगवान शिव से वर मांगने में संकोच करती हैं, किंतु शिवजी स्वयं उन्हें अर्धांगिनी बनाकर स्वीकार करते हैं।
इसके पश्चात सती अपने पिता दक्ष के पास लौटती हैं और शिव से प्राप्त वर की बात बताती हैं। प्रजापति दक्ष हर्षित होकर विवाह के लिए सहमत हो जाते हैं। अंत में ब्रह्मा जी शिवजी के निर्देश पर दक्ष के पास जाकर सती का विवाह प्रस्ताव रखते हैं और यह शुभ समाचार विवाह की ओर अग्रसर होता है।
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सती शिव विवाह
सती की तपस्या
शिव पुराण हिंदी में
सती ने शिव से वर पाया
दक्ष कन्या सती
सती और भगवान शिव की कथा
सती शिव प्रेम कथा
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शिव सती की प्रेम गाथा
शिव के दर्शन
सती की शिव भक्ति
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नारद ब्रह्मा संवाद
सती को वरदान
शिव सती विवाह प्रसंग
देवी सती की कथा
शिव पुराण का सत्रहवां अध्याय
सती और महादेव का मिलन
दक्ष प्रजापति और सती
इस अध्याय में ब्रह्मा, विष्णु और अन्य देवताओं द्वारा भगवान शिव की स्तुति की जाती है और उनसे अनुरोध किया जाता है कि वे लोकहित के लिए विवाह करें। भगवान शिव पहले अपने तप, वैराग्य और योगमयी जीवन का वर्णन करते हुए विवाह को अस्वीकार करते हैं, लेकिन फिर देवताओं के आग्रह और लोककल्याण हेतु विवाह स्वीकार करते हैं।
विष्णु भगवान उन्हें बताते हैं कि देवी उमा ही लक्ष्मी और सरस्वती के समान उनकी अर्धांगिनी बनने के लिए तीसरे रूप में देवी सती के रूप में प्रजापति दक्ष के घर जन्म ले चुकी हैं। सती घोर तपस्या कर रही हैं ताकि शिवजी को पति रूप में प्राप्त कर सकें।
यह अध्याय देवी सती की तपस्या की सिद्धि, देवताओं की याचना और शिवजी के विवाह की स्वीकृति का सुंदर समन्वय प्रस्तुत करता है।
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पंद्रहवां अध्याय – सती की तपस्या
इस अध्याय में ब्रह्माजी नारद को बताते हैं कि वे एक दिन नारद के साथ प्रजापति दक्ष के घर गए। वहाँ उन्होंने देवी सती को देखा और आशीर्वाद दिया कि वे भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करेंगी, क्योंकि वे दोनों एक-दूसरे के योग्य हैं।
इसके बाद सती ने अपनी माता से भगवान शिव को प्राप्त करने की इच्छा बताई और माता की अनुमति से घर पर ही भगवान शिव की तपस्या आरंभ कर दी। वे आश्विन से लेकर भाद्रपद तक पूरे वर्षभर विभिन्न मासों, तिथियों और विधियों से भगवान शिव का व्रत, उपवास, पूजन और स्मरण करती रहीं।
सती ने द्वादशवर्षीय नंदा व्रत का पालन किया और कठोर तप किया। अंत में उनकी तपस्या को देख सभी देवता, ब्रह्मा और विष्णु सहित, कैलाश पर्वत पर जाकर भगवान शिव से उनकी स्तुति करते हैं।
यह अध्याय देवी सती की अटल भक्ति, धैर्य, और संकल्प शक्ति का महान उदाहरण प्रस्तुत करता है।
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स अध्याय में ब्रह्माजी नारद को बताते हैं कि दक्ष को शांत करने के लिए वे स्वयं उसके पास गए और उसे सांत्वना दी। दक्ष ने ब्रह्माजी की बात मानते हुए अपनी पत्नी से सात सुंदर कन्याएं प्राप्त कीं और उनका विवाह धर्म के अनुसार योग्य वरों से किया।
दक्ष ने:
10 कन्याओं का विवाह धर्म से,
13 कन्याओं का विवाह कश्यप मुनि से,
27 कन्याओं का विवाह चंद्रमा से किया,
अन्य कन्याओं का विवाह भूतनिग्रह, कुशाश्व और तार्क्ष्य आदि से किया।
इन सभी के वंश से तीनों लोक भर गए।
इसके बाद दक्ष ने देवी जगदंबिका की भक्ति करके उनसे पुत्री रूप में जन्म लेने का वर प्राप्त किया। देवी प्रसन्न होकर दक्ष की पत्नी के गर्भ से जन्म लेने को तैयार हुईं। उचित समय पर देवी ने शिशु रूप में अवतार लिया, और उनका नाम 'उमा' रखा गया।
देवी उमा का पालन बड़े प्रेम से हुआ। वे बचपन से ही भगवान शिव की भक्ति में लीन रहती थीं और उनकी मूर्ति को देखकर मंत्रमुग्ध हो जाया करती थीं।
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इस अध्याय में ब्रह्माजी नारद को बताते हैं कि देवी का वरदान प्राप्त कर प्रजापति दक्ष अपने आश्रम लौटे और मानसिक सृष्टि करने लगे। लेकिन उसमें वृद्धि न होते देख वे चिंतित हो उठे और ब्रह्माजी से उपाय पूछते हैं। ब्रह्माजी उन्हें शिव भक्ति करने और वीरण की पुत्री असिक्नी से विवाह कर मैथुनी सृष्टि का आरंभ करने की सलाह देते हैं।
दक्ष असिक्नी से विवाह करते हैं और उनके दस हज़ार पुत्र हर्यश्व जन्म लेते हैं। वे सभी सृष्टि कार्य हेतु तप करने निकलते हैं लेकिन नारद मुनि उन्हें वैराग्य का मार्ग दिखा देते हैं, जिससे वे वापस नहीं लौटते। इससे दक्ष अत्यंत दुखी होते हैं।
बाद में उनके एक हज़ार अन्य पुत्र शबलाश्व भी उसी मार्ग पर चलते हैं और वे भी वैराग्य धारण कर लेते हैं। नारद मुनि द्वारा बार-बार ऐसा किए जाने पर क्रोधित होकर दक्ष उन्हें शाप देते हैं कि वे तीनों लोकों में कहीं स्थिर नहीं रह सकेंगे।
नारद मुनि यह शाप शांत मन से स्वीकार कर लेते हैं और उनके मन में कोई विकार नहीं आता।
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इस अध्याय में नारद जी, ब्रह्माजी से प्रश्न करते हैं कि प्रजापति दक्ष ने देवी की किस प्रकार तपस्या की और उन्हें क्या वरदान प्राप्त हुआ?
ब्रह्मा जी बताते हैं कि उनकी आज्ञा से प्रजापति दक्ष क्षीरसागर के तट पर तपस्या के लिए गए और वहां बैठकर देवी उमा को पुत्री रूप में प्राप्त करने की प्रार्थना करते हुए कठोर व्रत का पालन किया। तीन हजार दिव्य वर्षों तक केवल वायु और जल पर निर्वाह करते हुए उन्होंने घोर तप किया।
उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर देवी कालिका (जगदंबा) अपने सिंह पर सवार होकर प्रकट हुईं। देवी ने दक्ष की भक्ति और नम्रता से प्रसन्न होकर उन्हें वर मांगने को कहा। दक्ष ने निवेदन किया कि वे उनकी पुत्री बनें और शिवजी से विवाह करें। उन्होंने कहा कि केवल देवी ही ऐसी हैं जो भगवान शिव को गृहस्थ आश्रम में लाने में समर्थ हैं।
देवी ने कहा कि वे स्वयं शिव की दासी हैं और प्रत्येक जन्म में शिव ही उनके स्वामी होते हैं। उन्होंने वचन दिया कि वे दक्ष के घर पुत्री रूप में जन्म लेंगी, लेकिन यह चेतावनी भी दी कि यदि कभी उनके प्रति आदर कम होगा, तो वे अपना शरीर त्याग देंगी।
अंत में देवी जगदंबा अंतर्धान हो गईं और प्रजापति दक्ष प्रसन्न मन से घर लौट आए।
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स अध्याय में नारद जी के प्रश्न पर ब्रह्मा जी बताते हैं कि भगवान विष्णु के जाने के बाद उन्होंने देवी दुर्गा (योगनिद्रा, चामुंडा) का स्मरण किया और उनसे प्रार्थना की कि वे धरती पर अवतरित होकर भगवान शिव से विवाह करें। ब्रह्मा जी को यह चिंता थी कि शिवजी गृहस्थ जीवन में प्रवेश नहीं करना चाहते।
देवी चामुंडा प्रकट होकर कहती हैं कि भगवान शिव को मोह में डालना असंभव है, क्योंकि वे परम योगी और ब्रह्मचारी हैं, लेकिन ब्रह्मा जी की भक्ति से प्रसन्न होकर वे वचन देती हैं कि वे सती रूप में जन्म लेंगी और प्रयत्न करेंगी कि भगवान शिव गृहस्थ जीवन स्वीकार करें। अंततः देवी अंतर्धान हो जाती हैं।
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यह अध्याय शिव पुराण से लिया गया है और इसमें ब्रह्मा-विष्णु संवाद का वर्णन किया गया है। इसमें भगवान शिव के रुद्र अवतार और देवी सती के जन्म एवं विवाह की चर्चा की गई है।
यह अध्याय भगवान शिव के रुद्र अवतार, देवी सती के जन्म और उनके विवाह की भविष्यवाणी को स्पष्ट करता है। यह भगवान शिव की दिव्यता और भक्तों के प्रति उनकी करुणा को भी दर्शाता है।
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