कई लोगों का मानना है कि प्रेमचंद के 'गोदान' के बाद हिंदी साहित्य का सर्वोच्च उपन्यास है, सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' की कृति 'शेखर : एक जीवनी'। सच्चिदानंद वात्स्यायन को 'अज्ञेय' उपनाम स्वयं प्रेमचंद ने दिया था और, आगे चल के, फणीश्वर नाथ रेणु ने एक लेख में उनको − 'अलख, अचल, अगम, अगोचर, अजब, अकेला, अज्ञेय' कहा था। अपने जीवन काल में अज्ञेय ने कविताएं, उपन्यास, लघु-कहानियाँ, निबंध, यात्रा-वृतांत, और अख़बार व पत्रिकाओं के लिए अनेक आलेख लिखे। अज्ञेय को हिंदी साहित्य में आधुनिकतावाद यानी 'मॉडर्निज़्म' का जनक माना जाता है। अक्षय मुकुल की लिखी हुई, अज्ञेय की जीवनी का शीर्षक है 'राइटर, रेबेल, सोल्जर, लवर' यानी, लेखक, बाग़ी, सैनिक, और प्रेमी। ये बहुप्रशंसित जीवनी अज्ञेय के जीवन के हर एक पहलु पर प्रकाश डालती है।
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क़रीब एक हज़ार साल से, दिल्ली हिन्द-उपमहाद्वीप के बड़े हिस्सों पर शासन करने वाले अलग-अलग साम्राज्यों की राजधानी रही है। रक्षंदा जलील अपने आप को पक्की दिल्ली-वाली मानती हैं और वे संपादक हैं 'बस्ती एंड दरबार – अ सिटी इन स्टोरीज' की। इस किताब में ३२ कहानियाँ हैं – जो, या तो लघु कथाएँ हैं या उपन्यास का अंश हैं। इन कहानियाँ को पढ़ के हम वाक़िफ़ होते हैं सन 1857 से लेकर आज तक की दिल्ली के अच्छे-बुरे, मीठे-वीभत्स पहलुओं से।
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आज़ादी के बाद, १९५० और १९६० के दशकों में, भारत को अपनी आबादी को भुखमरी से बचाने के लिए अक्सर अमरीकी अनाज पर निर्भर होना पड़ता था। फिर 'हरित क्रांति' यानी 'ग्रीन रेवोलुशन' के बदौलत, वर्ष १९७१ तक भारत अनाज उत्पादन में आत्मनिर्भर बन गया। ये संभव हुआ, नए किस्म के उपजाऊ अनाज, सिंचाई व्यवस्था में बढ़ोत्तरी, और रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाइयों के व्यापक इस्तेमाल से। लेकिन आत्मानिर्भरता के लिए देश को कीमत अदा करनी पड़ी। क्या असर हुआ है नई खेती प्रणाली का छोटानागपुर प्रान्त के आदिवासी गाँवों में? चित्रों समेत, एक सरल कहानी द्वारा इसका वर्णन किया है अनुमेहा यादव ने अपनी पुस्तक 'आवर राइस टेस्ट्स ऑफ़ स्प्रिंग' में, जो बच्चों और वयस्कों दोनों के लिए लिखी गयी है।
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फिल्म जगत की एक मशहूर 'एक्टर-डायरेक्टर' जोड़ी थी, सत्यजीत रे और शौमित्रो चटर्जी की। शौमित्रो ने रे की २८ फिल्मों में से १४ में मुख्य किरदार निभाया। इन १४ फिल्मों के अलावा शौमित्रो ने और भी बहुत कुछ किया। अपने ६० साल के करियर में उन्होंने पुरे ३०० फिल्मों में काम किया। साथ-साथ, वे एक 'थिएटर-एक्टर', नाटककार, लेखक, कवि, संपादक, और चित्रकार भी थे। जनवरी 2020 में शौमित्रो ८५ साल के हो गये और उस साल उनकी सात फिल्में रिलीज़ हुई थीं। उसी वर्ष, शौमित्रो का देहांत हो गया। उनकी जीवनी 'शौमित्रो चटर्जी एंड हिज़ वर्ल्ड' में संघमित्रा चक्रवर्ती लिखती हैं कि सत्यजीत रे के गुज़र जाने के बाद बंगाल के पास सिर्फ शौमित्रो ही बचे थे। सुनिए संघमित्रा के साथ उनके इस कथन और शौमित्रो चटर्जी के जीवन के अन्य पहलुओं पर एक चर्चा।
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विश्व भर में विकास के नाम पर जंगल काट कर ख़त्म किये जा रहे हैं। ऐसे में, अगर सरकार जंगल के एक टुकड़े को नेशनल पार्क घोषित कर देती है और वहाँ आदमी के निवास व आवाजाही को वर्जित कर देती है, तो इस को अच्छा ही माना जायेगा। मगर सदियों से इन्ही जंगलों का एक अभिन्न हिस्सा रहे हैं, इनमे वास करने वाले आदिवासी। अगर वन संरक्षण के नाम पर उनको किसी नेशनल पार्क से जबरन निकाल दिया जाय, तो क्या ये उचित होगा? आज, उत्तराखंड की वन-गूजर जनजाति इसी विडम्बना का शिकार है। ईता मेहरोत्रा अपनी ग्राफ़िक या चित्रपट शैली में बनाई गई पुस्तक 'अपरूटेड' में वन गुज़रों की व्यथा और उनकी परिस्थितियों की दृढ़ता से सामना करने की क्षमता -- दोनों पर प्रकाश डालती हैं। सुनिए ईता के साथ एक चर्चा उनकी संवेदनशील पुस्तक पर।
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प्रेम शंकर झा की नई किताब का नाम है − 'द डिस्मैंटलिंग ऑफ़ इंडिया'ज़ डेमोक्रेसी'; हिंदी में कहें तो, 'भारतीय लोकतंत्र का विध्वंस'। झा को पत्रकारिता करते हुए पचास से ज़्यादा साल हो चुके हैं और वे देश के प्रतिष्ठित अखबारों में संपादक रह चुके हैं। उनका मानना है कि आज भारत में लोकतंत्र अपने अंतिम चरण पर है। इसके चारों स्तम्भ − कार्यपालिका (एक्सीक्यूटिव), विधान मंडल (लेजिस्लेचर), न्यायपालिका, और प्रेस या मीडिया − खोखले हो चुके हैं। क़िताब में झा बताते हैं कि किन कारणों से भारत की राजनीति और भारतीय समाज, दक्षिणपंथी राजनीति के चपेट में आ गए हैं। यानी, किन कारणों से भारत में हिंदुत्व की राजनीति का प्रभाव इतना बढ़ गया है। और, क्यों इस राजनीती से देश में लोकतंत्र और देश की अखंडता − दोनों को गंभीर खतरा है।
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आज़ाद भारत के महान चित्रकार सय्यद हैदर रज़ा ने अपने लम्बे जीवन के ६० वर्ष फ्रांस में गुज़ारे, मगर उनकी कला का मुख्य प्रेरणा स्रोत भारत की संस्कृति रही। इस प्रेरणा का सबसे जाना-माना प्रतीक है 'बिंदु', वो काले या अन्य रंग का गोल घेरा जो रज़ा साहब के चित्रों में हमारी नज़र को अपनी ओर खींचता है। अपनी पुस्तक 'सेलिब्रेशन एंड प्रेयर' में अशोक वाजपेयी लिखते हैं, कि बिंदु − एक उत्पत्ति का बिंदु और एक अंत का बिंदु है; एक अधयात्मिक अवधारणा है और सौंदर्यशास्त्र से जुड़ी कृति है; एक स्थिर केंद्र और ऊर्जा का एक स्रोत है; एक मौन की बिंदु और स्फूर्त गति की शरुआत है; एकीकरण और ध्यान का केंद्र है; विकिरण की बिंदु है; और अंकुरण व प्रकाश की बिंदु है। सुनिए रज़ा और उनकी कला पर एक चर्चा अशोक वाजपेयी के साथ।
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जुलाई २०२३ में रेलवे पुलिस के एक सिपाही ने जयपुर-मुंबई सुपरफास्ट एक्सप्रेस में सफर करते तीन मुसलमान यात्रियों की गोली मारकर हत्या कर दी, सिर्फ इसलिए क्योंकि वे मुसलमान थे। अपनी किताब में डॉ हिलाल अहमद लिखते हैं कि इस घटना से पता चलता है कि आज के भारत में हिंसात्मक मुस्लिम-विरोधी माहौल किस हद तक बढ़ चुका है। मगर उन्होंने पिछले दस वर्षों में भारत के मुसलमान नागरिकों के हालात और उनके मुस्लिम पहचान का आकलन सहनशील, निष्पक्ष, और शांतचित्त भाव से किया है। सुनिए एक चर्चा डॉ अहमद के साथ उनकी पुस्तक 'अ ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ़ द प्रेज़ेंट' पर।
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पड़ोस के बच्चों ने सात साल की सईदा सईदैन के साथ खेलने से इंकार कर दिया क्योंकि वो मुसलमान थी। नन्ही सईदा ने इस घटना पर एक कहानी लिखी जो बहुत सराही गयी और एक किताब के रूप में छपी। किताब खूब चली और सईदा को तत्कालीन प्रधानमन्त्री पंडित नेहरू के हाथों एक गुड़िया पुरूस्कार में मिली। आगे चल के डॉ सईदा हमीद ने पढ़ा-लिखा, घर बसाया, और घर के बाहर भी बहुत कुछ हासिल किया। वे योजना आयोग और राष्ट्रीय महिला आयोग की सदस्य रहीं, और उन्होंने एक कुशल लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता, व शिक्षा-क्षेत्र में कार्यकर्ता के रूप में अपना स्थान बनाया। कितना आसान और कितना मुश्किल है भारत में एक मुसलमान होना − इसका अंदाज़ लगता है डॉ हमीद के संस्मरण 'अ ड्राप इन द ओशन' को पढ़ के।
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अंडमान और निकोबार द्वीप समूह का सबसे दक्षिणी द्वीप 'द ग्रेट निकोबार' करीब-करीब पूरी तरह से घने जंगल से ढका हुआ है और आधुनिक सभ्यता से लगभग अछूता है। शोम्पेन और 'ग्रेट निकोबारी' आदिवासी समुदाय इस छोटे से द्वीप में सैकड़ों हज़ारों वर्षों से रह रहे हैं। यहाँ अनेकों दुर्लभ पशु-पक्षि, मछलियाँ, व अन्य प्राणी-प्रजातियां पाई जाती हैं। अब भारत सरकार 'द ग्रेट निकोबार' द्वीप में एक विशाल 'ट्रांसशिपमेंट कंटेनर पोर्ट' यानी बंदरगाह का निर्माण करने जा रही है। साथ ही साथ, एक नए शहर, अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे, और पावर प्लांट का भी निर्माण होगा। ये सब करने के लिए १० लाख पेड़ों को काटा जाएगा। परियोजना की लागत होगी, ८०,००० करोड़ रुपये। सुनिए एक चर्चा 'द ग्रेट निकोबार बिट्रेयल' के संपादक डॉ पंकज सेखसरिया के साथ जिसमें वे बताते हैं कि ये परियोजना विनाश का पर्याय है, विकास का नहीं।
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कुनाल पुरोहित की किताब में तीन किरदार हैं − गायिका कवि सिंह, लेखक व राजनैतिक ‘कमेंटेटर’ संदीप देओ, और कवि कमल अग्नेय। तीनों के कला और हुनर का, आजीविका और पेशे का, केंद्र है हिंदुत्व की विचारधारा; और तीनों अपने श्रोताओं तक पहुँचने के लिए निर्भर हैं इंटरनेट व 'ऑनलाइन' जगत पर। क़िताब में, कुनाल इनके सोच, परिवेश, काम-काज, और जीवन के उतराव-चढ़ाव को उजागर करते हैं। और इस तरह, 'एच-पॉप − द सेक्रेटिव वर्ल्ड ऑफ़ हिंदुत्वा पॉप स्टार्स' हमारे समय का एक आइना बन जाता है।
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नालंदा महाविहार का इतिहास शुरू होता है सम्राट अशोक के समय से, यानी ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी से, और खत्म होता है — 1,500 साल बाद —बारहवीं शताब्दी में। 'नालंदा' किताब के लेखक अभय कुमार बताते हैं कि अपने समय में नालंदा ज्ञान का एक विश्वविख्यात केंद्र था जहाँ चीन, तिब्बत, कोरिया और जापान जैसे दूर-दराज़ देशों से लोग पढ़ने आते थे। मगर आज नालंदा एक रहस्य है। क्या है नालंदा का महत्व? क्यों आज की वैश्विक आधुनिक सभ्यता नालंदा की ऋणी है? क्या बख्तियार खिल्जी ने वाकई नालंदा का विध्वंस किया था? सुनिए एक चर्चा अभय कुमार के साथ उनकी किताब ‘नालंदा’ पर।
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नेहा दीक्षित की किताब 'द मेनी लाइव्स ऑफ़ सईदा एक्स' कहानी है सईदा की, जो बनारस के दंगो में सब कुछ खोने के बाद, आजीविका की तलाश में अपने पति और छोटे बच्चों के साथ १९९६ में दिल्ली आ जाती है। अगले २४ सालों में सईदा दिल्ली में ५० अलग-अलग तरह के काम करती है, जैसे साइकिल के पुर्जे बनाना, बादाम छीलना, डॉक्टर के क्लीनिक में सफाई करना, या गजक, खिलौने और अगरबत्ती बनाना। दिन में १६ से १८ घंटों काम करने के बावजूद सईदा रोटी, कपड़े, और मकान के लिए हमेशा झुझती रहती है। वर्ष २०२० में दिल्ली में दंगे होते हैं और एक बार फिर सईदा का सब कुछ लुट जाता है। सुनिए 'द मेनी लाइव्स ऑफ़ सईदा एक्स' पर एक चर्चा, नेहा के साथ।
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सितम्बर २०१९ में शुरु हुआ एक घटनाक्रम, जिसकी चार मुख्य कड़ियाँ थीं।पहली कड़ी थी दिल्ली के शाहीन बाग़ इलाके में सी.ए.ए.−एन.आर.सी. कानूनों का विरोध-प्रदर्शन, जो यहाँ से देश के अन्य भागों में फैला। इसके बाद फ़रवरी २०२१ में दिल्ली में दंगे हुए और इन दंगों के तुरंत बाद पुरे देश में कोविड महामारी का लॉक-डाउन लगा। घटनाक्रम की आखिरी कड़ी थी किसान आंदोलन, जिसके केंद्र थे दिल्ली के बॉर्डर इलाके। ऐसा लगने लगा कि ज़िन्दगी में कुछ बुनियादी बदलाव आ गया है। यही अहसास ताज़ा कर देती हैं फोटो जर्नलिस्ट ईशान तन्खा की तसवीरें, जो उन्होंने तीन पतली पत्रिकाओं में संकलित कर के 'स्टिल, लाइफ' के नाम से छापा है। सुनिए 'स्टिल, लाइफ' पर एक चर्चा, ईशान तन्खा के साथ।
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विश्वास नहीं होता कि आज से पाँच सौ साल पहले, कबीर व अन्य भक्ति काल के कवियों ने, ख़ास कर वे जो निर्गुण मार्गी थे, जाति प्रथा व अन्य सामाजिक कुरीतियों, और खोखले कर्मकाण्ड की कितनी तीखी आलोचना की थी। ये बातें उभर के आती हैं डॉ पुरुषोत्तम अग्रवाल की नवीनतम पुस्तक में, जिसका विषय है भक्ति काल के कवि, जन गोपाल। जन गोपाल, सोलहवीं और सत्रवीं शताब्दी के एक राजस्थानी कवि और लेखक थे, जो बृज भाषा में लिखते थे। आज वे अपने गुरु दादू दयाल की जीवनी, 'दादू जन्म लीला' के लेखक होने के नाम से जाने जाते हैं। आइये सुनते हैं एक चर्चा डॉ पुरुषोत्तम अग्रवाल के साथ उनकी किताब 'सो सेज़ जन गोपाल' पर।
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ज़िन्दगी में उतराव-चढ़ाव को एक ही सिक्के के दो पहलु मानते हुए, प्रेम, सौहार्द, व भाईचारे के भावना को प्रधानता देते हुए, कार्यरत रहना चाहिए। ये बात समझ में आती है, भारत के थिएटर जगत और फिल्म जगत से जुड़े हुए जाने-माने हस्ती, एम. के. रैना के संस्मरण 'बिफोर आई फॉरगेट' को पढ़ के — चाहे वो आतंक के साये में घिरे, कर्फ्यू-ग्रस्त श्रीनगर में अपनी माँ की अंतिम क्रिया कर रहे हों; दिल्ली के १९८४ के दंगों में राहत कार्य में जुटे हों; बाबरी-मस्जिद-विध्वंस के बाद अयोध्या में शास्त्रीय संगीत समारोह आयोजित कर रहे हों; या आतंकवाद से ग्रस्त कश्मीर घाटी में भांड-पाथेर नाट्य शैली के पुनर्जागरण में जुटे हों। आइये सुनते हैं एक चर्चा एम. के. रैना के साथ उनकी पुस्तक 'बिफोर आई फॉरगेट' पर।
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आज हम गाँधी, नेहरू, सरदार पटेल, और भगत सिंह जैसे स्वतंत्रता संग्राम के बड़े नेताओं और क्रांतिकारिओं के जीवन से वाकिफ तो हैं, मगर आसफ अली जैसे स्वतंत्रता सैनानि व नेताओं के जीवन का ज्ञान हमको प्रायः नहीं के बराबर होता है। दिल्ली में, भले ही हम आसफ़ अली रोड, अरुना आसफ अली रोड, अंसारी रोड, मौलाना मोहम्मद अली मार्ग जैसे सडकों पर चलते हों, मगर कौन थे ये लोग जिनके यादगार में इन सड़कों का नाम रखा गया है, क्या भूमिका थी इनकी स्वतंत्रता संग्राम में, कैसी थी इनकी ज़िन्दगी, क्या कुर्बानियां दी इन्होंने – ये सब उजागर किया है टी. सी. ए. राघवन ने अपनी किताब 'सर्कल्स ऑफ़ फ्रीडम' में।
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2. एक्स (ट्विटर) पर टी. सी. ए. राघवन
3. 'सर्कल्स ऑफ़ फ्रीडम' अमेज़न पर
4. टी. सी. ए. राघवन की अन्य पुस्तकें अमेज़न पर
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शहंशाह शाहजहाँ, टीपू सुल्तान, और मराठा साम्राज्य के आखरी पेशवा, बाजी राओ द्वितीय – इन्होंने कौन से पेड़ लगाए थे, जो आज भी जीवित हैं? भारत में कहाँ है दुनिया का सबसे बड़ा पेड़ जिसके नीचे एक बार में २०,००० आदमी खड़े हो सकते हैं? कहाँ है भारत का सबसे पुराना वृक्ष, जिसकी उम्र है २०२३ साल? किस पेड़ के नीचे गुरु नानक बैठे थे, और किसके नीचे रबिन्द्रनाथ टैगोर बैठे? किस पेड़ को महात्मा गाँधी ने लगाया था और किसको विश्व विख्यात एक्स्प्लोरर डेविड लिविंगस्टोन ने? इनमे से कुछ सवालों के जवाब आपको मिलेंगे डॉ एस. नटेश के साथ इस चर्चा में, और शेष सवालों के जवाब मिलेंगे उनकी किताब, 'आइकोनिक ट्रीज ऑफ़ इंडिया', यानी ‘भारत के बहुत खास पेड़’, में।
1. इंस्टाग्राम पर 'आइकोनिक ट्रीज ऑफ़ इंडिया'
2. अमेज़न पर 'आइकोनिक ट्रीज ऑफ़ इंडिया'
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दिल्ली के रिंग-रोड सड़क पर जब राजीव भार्गव की गाड़ी एक अन्य गाड़ी से टकराते-टकराते बची, तो अपनी गाड़ी से उतरकर उन्होंने दूसरी गाड़ी के ड्राइवर से पूछा, 'क्या आपको मालूम है कि साइड रोड पर चलती गाड़ी को मेन रोड पर आती हुई गाड़ी के लिए रुकना होता है?' दुसरे ड्राइवर ने जवाब दिया, ‘जो गाड़ी जिस रोड पर होती है, उसके लिए वही मेन रोड होता है।' ऐसे ही व्यक्तिगत अनुभव, एवं देश और समाज की खबरें, इतिहास से लिए गए उदाहरण, और गाँधी व नेहरू जैसे हस्तियों के सोच के जरिये से डॉ भार्गव समकालीन भारत के नैतिक स्वास्थ का आकलन करते हैं, अपनी किताब 'राष्ट्र और नैतिकता' में। किताब में, जहाँ-जहाँ डॉ भार्गव को अंधेरा दिखता है, वहाँ से उजियारे की ओर जाने का रास्ता भी दिखाते हैं।
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अपनी किताब में राधा कुमार कहती हैं कि भारत में पहले गणराज्य की स्थापना हुई थी १९४७ में, जब देश को आज़ादी मिली। वे ये भी कहती हैं कि २०१९ में − जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में दोबारा एन. डी. ए. (राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन) की सरकार सत्ता में आई − तब भारत में 'सेकंड रिपब्लिक', यानी दूसरे गणराज्य की स्थापाना हो गई। वो इसलिए, क्योंकि इस प्रशासन के लक्ष्य, और उन लक्ष्यों को हासिल करने के तरीकों, का भारत के संविधान से वास्ता कम था। ये एक गंभीर आरोप है। राधा कुमार क्यों और किन तथ्यों के आधार पर ऐसा मानती हैं, ये जानने के लिए आप पढ़ सकते हैं उनकी पुस्तक 'द रिपब्लिक रीलर्न्ट − रीन्यूइंग इंडियन डेमोक्रेसी − 1947 टू 2024'।
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