मता-ए-बे-बहा है दर्द-ओ-सोज़-ए-आरज़ू-मंदी !!!
वो हर्फ़-ए-राज़ के मुझ को सिखा गया है जुनूँ..
न तू ज़मीं के लिए है न आसमाँ के लिए
वहीं मेरी कम-नसीबी वही तेरी बे-नियाज़ी..
दिल सोज़ से ख़ाली है निगह पाक नहीं है
न तख़्त ओ ताज में ने लश्कर ओ सिपाह में है
मुझे आह-ओ-फ़ुग़ान-ए-नीम-शब का फिर पयाम आया
ख़ुदी की शोख़ी ओ तुंदी में किब्र ओ नाज़ नहीं
अपनी जौलाँ-गाह ज़ेर-ए-आसमाँ समझा था मैं
हादसा वो जो अभी पर्दा-ए-अफ़लाक में है....
दयारे-इश्क़ में अपना मुक़ाम पैदा कर...
ख़ुदा से हुस्न ने इक रोज़ ये सवाल किया_हकी़क़ते-हुस्न ...!!!
मजनूँ ने शहर छोड़ा है सहरा भी छोड़ दे
तू अभी रहगुज़र में है क़ैद-ए-मकाम से गुज़र
नहीं मिन्नत-कश-ए-ताब-ए-शनीदन दास्ताँ मेरी
ख़िरदमन्दों से क्या पूछूँ कि मेरी इब्तिदा क्या है
जब इश्क़ सिखाता है आदाब-ए-ख़ुद-आगाही