
कुपवाड़ा की घाटी पर बर्फ़ की लगातार छलक रही चादर सब कुछ शांत और उजाड़ बना रही थी—लेकिन यही माहौल मौत की साज़िश छिपाए हुए था। लेफ्टिनेंट अर्जुन राठौड़ ऊँची चट्टानों पर खड़ा था, दूर से एक सप्लाई काफिला धीमे-धीमे आगे बढ़ता दिख रहा था।
यह सिर्फ़ एक रुटीन ऑपरेशन था—लेकिन कुपवाड़ा में “रुटीन” का मतलब अक्सर खतरनाक होता है। अर्जुन की जाँघ तक जम चुकी साँसों ने उसे सतर्क किया था। कैप्टन राघव की कड़क आवाज़ ने आगाह किया: “ये यार शातिर होते हैं…” और उसके बाद कुछ पल में ही बर्फीली खामोशी में विस्फोट की गर्जना गूंज उठी।
लाही पड़ा ट्रक, आग का गुबार, और अचानक शुरू हुई लड़ाई। अर्जुन, विक्रम और साहिल ने मिलकर दुश्मन को चकमा दिया, लेकिन इस लड़ाई की कीमत थी—कुछ साथी पीछे छूट गए।
कैप्टन राघव की आवाज़ ने गूँजाया: “फ्लैंक कर!” अर्जुन ने दुश्मनों के रेडियो आउटपोस्ट को निशाना बनाया और विक्रम के साथ मिलकर उन्हें एकदम सुचारु कर दिया। इसी एक कदम ने लड़ाई का मोड़ बदल दिया।
जब आख़िरी गोली गूंज गया, तो घाटी में अचानक एक अजीब सी ख़ामोशी छा गई। विजय मिली थी—लेकिन उसका स्वाद कसैला था। घायल साथी, मरने वालों की लाशें, और बचे सैनिक—उनकी आँखों में मिश्रित थकावट, गर्व, और गहरा सौगंध था।
रात को छोटा सा कैंपफायर गर्माया गया—पर दिल ठंडे थे। तब, साहिल ने धीमी आवाज़ में कहा: “सिर्फ़ आप सबकी वजह से मैं ज़िंदा हूँ।” विक्रम मुस्कराया: “पर अगली बार फ्रीज़ मत होना—गोलियाँ इंतज़ार नहीं करेंगी!”
और अर्जुन ने, एक अँधेरी रात में, खुद से कहा:
“रूटीन को रूटीन मत समझना… और हमारे बीच का ये बंधन—ये हमारी ताक़त है।”
कुपवाड़ा की बर्फ़ उस रात गवाह बनी—एक मोड़ का, एक वादा का, और एक नए अध्याय का।
🎧 सुनिए इसके साथ एक और कशमकश, जहाँ युद्ध केवल गोलियों से नहीं, बल्कि डर, नेतृत्व, और एकजुटता से भी लड़ा जाता है।