Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 37 to 39
अध्याय 6 : ध्यानयोग
श्लोक 6 . 37
अर्जुन उवाच
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगच्चलितमानसः |
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां कृष्ण गच्छति || ३७ ||
अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा; अयतिः – असफल योगी; श्रद्धया – श्रद्धा से; उपेतः – लगा हुआ, संलग्न; योगात् – योग से; चलित – विचलित; मानसः – मन वाला; अप्राप्य – प्राप्त न करके; योग-संसिद्धिम् – योग की सर्वोच्च सिद्धि को; काम् – किस; गतिम् – लक्ष्य को; कृष्ण – हे कृष्ण; गच्छति – प्राप्त करता है |
अर्जुन ने कहा: हे कृष्ण! उस असफल योगी की गति क्या है जो प्रारम्भ में श्रद्धापूर्वक आत्म-साक्षात्कार की विधि ग्रहण करता है, किन्तु बाद में भौतिकता के करण उससे विचलित हो जाता है और योगसिद्धि को प्राप्त नहीं कर पाता ?
तात्पर्य
भगवद्गीता में आत्म-साक्षात्कार या योग मार्ग का वर्णन है | आत्म-साक्षात्कार का मूलभूत नियम यह है कि जीवात्मा यह भौतिक शरीर नहीं है, अपितु इससे भिन्न है और उसका सुख शाश्र्वत जीवन, आनन्द तथा ज्ञान में निहित है | ये शरीर तथा मन दोनों से परे हैं | आत्म-साक्षात्कार की खोज ज्ञान द्वारा की जाती है | इसके लिए अष्टांग विधि या भक्तियोग का अभ्यास करना होता है | इनमें से प्रत्येक विधि में जीव को अपनी स्वाभाविक स्थिति, भगवान् से अपने सम्बन्ध तथा उन कार्यों की अनुभूति प्राप्त करनी होती है, जिनके द्वारा वह टूटी हुई शृंखला को जोड़ सके और कृष्णभावनामृत की सर्वोच्च सिद्ध-अवस्था प्राप्त कर सके | इन तीनों विधियों में से किसी का भी पालन करके मनुष्य देर-सवेर अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त होता है | भगवान् ने द्वितीय अध्याय में इस पर बल दिया है कि दिव्यमार्ग में थोड़े से प्रयास से भी मोक्ष की महती आशा है | इन तीनों में से इस युग के लिए भक्तियोग विशेष रूप से उपयुक्त है, क्योंकि ईश-साक्षात्कार की यह श्रेष्ठतम प्रत्यक्ष विधि है, अतः अर्जुन पुनः आश्र्वस्त होने की दृष्टि से भगवान् कृष्ण से अपने पूर्वकथन की पुष्टि करने को कहता है | भले ही कोई आत्म-साक्षात्कार के मार्ग को निष्ठापूर्वक क्यों न स्वीकार करे, किन्तु ज्ञान की अनुशीलन विधि तथा अष्टांगयोग का अभ्यास इस युग के लिए सामान्यतया बहुत कठिन है, अतः निरन्तर प्रयास होने पर भी मनुष्य अनेक कारणों से असफल हो सकता है | पहला कारण यो यह हो सकता है कि मनुष्य इस विधि का पालन करने में पर्याप्त सतर्क न रह पाये | दिव्यमार्ग का अनुसरण बहुत कुछ माया के ऊपर धावा बोलना जैसा है | फलतः जब भी मनुष्य माया के पाश से छूटना चाहता है, तब वह विविध प्रलोभनों के द्वारा अभ्यासकर्ता को पराजित करना चाहती है | बद्धजीव पहले से प्रकृति के गुणोंद्वारा मोहित रहता है और दिव्य अनुशासनों का पालन करते समय भी उसके पुनः मोहित होने की सम्भावना बनी रहती है | यही योगाच्चलितमानस अर्थात् दिव्य पथ से विचलन कहलाता है | अर्जुन आत्म-साक्षात्कार के मार्ग से विचलन के प्रभाव के सम्बन्ध में जिज्ञासा करता है |
श्लोक 6 . 38
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति |
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि || ३८ ||
कच्चित् – क्या; न – नहीं; उभय – दोनों; विभ्रष्टः – विचलित; छिन्न – छिन्न-भिन्न; अभ्रम् – बादल; इव – सदृश; नश्यति – नष्ट जो जाता है; अप्रतिष्ठः – बिना किसी पद के; महा-बाहो – हे बलिष्ठ भुजाओं वाले कृष्ण; विमुढः – मोहग्रस्त; ब्रह्मणः – ब्रह्म-प्राप्ति के; पथि – मार्ग में |
हे महाबाहु कृष्ण! क्या ब्रह्म-प्राप्ति के मार्ग से भ्रष्ट ऐसा व्यक्ति आध्यात्मिक तथा भौतिक दोनों ही सफलताओं से च्युत नहीं होता और छिन्नभिन्न बादल की भाँति विनष्ट नहीं हो जाता जिसके फलस्वरूप उसके लिए किसी लोक में कोई स्थान नहीं रहता?
तात्पर्य
उन्नति के दो मार्ग हैं | भौतिकतावादी व्यक्तियों की अध्यात्म में कोई रूचि नहीं होती, अतः वे आर्थिक विकास द्वारा भौतिक प्रगति में अत्यधिक रूचि लेते हैं या फिर समुचित कार्य द्वारा उच्चतर लोकों को प्राप्त करने में अधिक रूचि रखते हैं | यदि कोई अध्यात्म के मार्ग को चुनता है, तो उसे सभी प्रकार के तथाकथित भौतिक सुख से विरक्त होना पड़ता है | यदि महत्त्वाकांक्षी ब्रह्मवादी असफल होता है तो वह दोनों ओर से जाता है | दूसरे शब्दों में, वह न तो भौतिक सुख भोग पाता है, न आध्यात्मिक सफलता हि प्राप्त कर सकता है | उसका कोई स्थान नहीं रहता, वह छिन्न-भिन्न बादल के समान होता है | कभी-कभी आकाश में एक बादल छोटे बादलखंड से विलग होकर बड़े खंड से जा मिलता है, किन्तु यदि वह बड़े बादल से नहीं जुड़ता तो वायु उसे बहा ले जाती है और वह विराट आकाश में लुप्त हो जाता है | ब्रह्मणः पथि ब्रह्म-साक्षात्कार का मार्ग है जो अपने आपको परमेश्र्वर का अभिन्न अंश जान लेने पर प्राप्त होता है और वह परमेश्र्वर ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान् रूप में प्रकट होता है | भगवान् श्रीकृष्ण परमसत्य के पूर्ण प्राकट्य हैं, अतः जो इस परमपुरुष की शरण में जाता है वही सफल योगी है | ब्रह्म तथा परमात्मा-साक्षात्कार के माध्यम से जीवन के इस तथ्य तक पहुँचने में अनेकानेक जन्म लग जाते हैं (बहूनां जन्मनामन्ते) | अतः दिव्य-साक्षात्कार का सर्वश्रेष्ठ मार्ग भक्तियोग या कृष्णभावनामृत की प्रत्यक्ष विधि है |
श्लोक 6 . 39
हे कृष्ण! यही मेरा सन्देह है, और मैं आपसे इसे पूर्णतया दूर करने की प्रार्थना कर रहा हूँ | आपके अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा नहीं है, जो इस सन्देह को नष्ट कर सके |
तात्पर्य
कृष्ण भूत, वर्तमान तथा भविष्य के जानने वाले हैं | भगवद्गीता के प्रारम्भ में भगवान् ने कहा है कि सारे जीव व्यष्टि रूप में भूतकाल में विद्यमान थे, इस समय विद्यमान हैं और भवबन्धन से मुक्त होने पर भविष्य में भी व्यष्टि रूप में बने रहेंगे | इस प्रकार उन्होंने व्यष्टि जीव के भविष्य के विषयक प्रश्न का स्पष्टीकरण कर दिया है | अब अर्जुन असफल योगियों के भविष्य के विषय में जानना चाहता है | कोई न तो कृष्ण के समान है, न ही उनसे बड़ा | तथाकथित बड़े-बड़े ऋषि तथा दार्शनिक, जो प्रकृति की कृपा पर निर्भर हैं, निश्चय ही उनकी समता नहीं कर सकते | अतः समस्त सन्देहों का पूरा-पूरा उत्तर पाने के लिए कृष्ण का निर्णय अन्तिम तथा पूर्ण है क्योंकि वे भूत, वर्तमान तथा भविष्य के ज्ञाता हैं, किन्तु उन्हें कोई भी नहीं जानता | कृष्ण तथा कृष्णभावनाभावित व्यक्ति ही जान सकते हैं कि कौन क्या है |
Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 4
अध्याय 6 : ध्यानयोग
श्लोक 6 . 3
आरूरूक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते |
योगारुढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते || ३ ||
आरुरुक्षोः – जिसने अभी योग प्रारम्भ किया है; मुनेः – मुनि की; योगम् – अष्टांगयोग पद्धति; कर्म – कर्म; कारणम् – साधन; उच्यते – कहलाता है; योग – अष्टांगयोग; आरुढस्य – प्राप्त होने वाले का; तस्य – उसका; एव – निश्चय हि; शमः – सम्पूर्ण भौतिक कार्यकलापों का त्याग; कारणाम् – कारण; उच्यते – कहा जाता है |
भावार्थ
अष्टांगयोग के नवसाधक के लिए कर्म साधन कहलाता है और योगसिद्ध पुरुष के लिए समस्त भौतिक कार्यकलापों का परित्याग ही साधन कहा जाता है |
तात्पर्य
परमेश्र्वर से युक्त होने की विधि योग कहलाती है | इसकी तुलना उस सीढ़ी से की जा सकती है जिससे सर्वोच्च आध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त की जाती है | यह सीढ़ी जीव की अधम अवस्था से प्रारम्भ होकर अध्यात्मिक जीवन के पूर्ण आत्म-साक्षात्कार तक जाती है | विभिन्न चढ़ावों के अनुसार इस सीढ़ी के विभिन्न भाग भिन्न-भिन्न नामों से जाने जाते हैं | किन्तु कुल मिलाकर यह पूरी सीढ़ी योग कहलाती है और इसे तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है – ज्ञानयोग, ध्यानयोग और भक्तियोग | सीढ़ी के प्रारम्भिक भाग को योगारुरुक्षु अवस्था और अन्तिम भाग को योगारूढ कहा जाता है |
जहाँ तक अष्टांगयोग का सम्बन्ध है, विभिन्न यम-नियमों तथा आसनों (जो प्रायः शारीरिक मुद्राएँ ही हैं) के द्वारा ध्यान में प्रविष्ट होने के लिए आरम्भिक प्रयासों को सकाम कर्म माना जाता है | ऐसे कर्मों से पूर्ण मानसिक सन्तुलन प्राप्त होता है जिससे इन्द्रियाँ वश में होती हैं | जब मनुष्य पूर्ण ध्यान में सिद्धहस्त हो जाता है तो विचलित करने वाले समस्त मानसिक कार्य बन्द हुए माने जाते हैं |
किन्तु कृष्णभावनाभावित व्यक्ति प्रारम्भ से ही ध्यानावस्थित रहता है क्योंकि वह निरन्तर कृष्ण का चिन्तन करता है | इस प्रकार कृष्ण की सेवा में सतत व्यस्त रहने के करण उसके सारे भौतिक कार्यकलाप बन्द हुए माने जाते हैं |
Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 3
अध्याय 6 : ध्यानयोग
श्लोक 6 . 3
आरूरूक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते |
योगारुढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते || ३ ||
आरुरुक्षोः – जिसने अभी योग प्रारम्भ किया है; मुनेः – मुनि की; योगम् – अष्टांगयोग पद्धति; कर्म – कर्म; कारणम् – साधन; उच्यते – कहलाता है; योग – अष्टांगयोग; आरुढस्य – प्राप्त होने वाले का; तस्य – उसका; एव – निश्चय हि; शमः – सम्पूर्ण भौतिक कार्यकलापों का त्याग; कारणाम् – कारण; उच्यते – कहा जाता है |
भावार्थ
अष्टांगयोग के नवसाधक के लिए कर्म साधन कहलाता है और योगसिद्ध पुरुष के लिए समस्त भौतिक कार्यकलापों का परित्याग ही साधन कहा जाता है |
तात्पर्य
परमेश्र्वर से युक्त होने की विधि योग कहलाती है | इसकी तुलना उस सीढ़ी से की जा सकती है जिससे सर्वोच्च आध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त की जाती है | यह सीढ़ी जीव की अधम अवस्था से प्रारम्भ होकर अध्यात्मिक जीवन के पूर्ण आत्म-साक्षात्कार तक जाती है | विभिन्न चढ़ावों के अनुसार इस सीढ़ी के विभिन्न भाग भिन्न-भिन्न नामों से जाने जाते हैं | किन्तु कुल मिलाकर यह पूरी सीढ़ी योग कहलाती है और इसे तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है – ज्ञानयोग, ध्यानयोग और भक्तियोग | सीढ़ी के प्रारम्भिक भाग को योगारुरुक्षु अवस्था और अन्तिम भाग को योगारूढ कहा जाता है |
जहाँ तक अष्टांगयोग का सम्बन्ध है, विभिन्न यम-नियमों तथा आसनों (जो प्रायः शारीरिक मुद्राएँ ही हैं) के द्वारा ध्यान में प्रविष्ट होने के लिए आरम्भिक प्रयासों को सकाम कर्म माना जाता है | ऐसे कर्मों से पूर्ण मानसिक सन्तुलन प्राप्त होता है जिससे इन्द्रियाँ वश में होती हैं | जब मनुष्य पूर्ण ध्यान में सिद्धहस्त हो जाता है तो विचलित करने वाले समस्त मानसिक कार्य बन्द हुए माने जाते हैं |
किन्तु कृष्णभावनाभावित व्यक्ति प्रारम्भ से ही ध्यानावस्थित रहता है क्योंकि वह निरन्तर कृष्ण का चिन्तन करता है | इस प्रकार कृष्ण की सेवा में सतत व्यस्त रहने के करण उसके सारे भौतिक कार्यकलाप बन्द हुए माने जाते हैं |
Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 2
अध्याय 6 : ध्यानयोग
श्लोक 6 . 2
यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव |
न ह्यसन्न्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्र्चन || २ ||
यम् –जिसको; संन्यासम् – संन्यास; इति – इस प्रकार; प्राहुः – कहते हैं; योगम् – परब्रह्म के साथ युक्त होना; तम् – उसे; विद्धि – जानो; पाण्डव – हे पाण्डुपुत्र; न – कभी नहीं; हि – निश्चय हि; असंन्यस्त – बिना त्यागे; सङ्कल्पः – आत्मतृप्ति की इच्छा; योगी – योगी; भवति – होता है; कश्र्चन – कोई |
भावार्थ
हे पाण्डुपुत्र! जिसे संन्यास कहते हैं उसे ही तुम योग अर्थात् परब्रह्म से युक्त होना जानो क्योंकि इन्द्रियतृप्ति के लिए इच्छा को त्यागे बिना कोई कभी योगी नहीं हो सकता |
तात्पर्य
वास्तविक संन्यास-योग या भक्ति का अर्थ है कि जीवात्मा अपनी स्वाभाविक स्थिति को जाने और तदानुसार कर्म करे | जीवात्मा का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं होता | वह परमेश्र्वर की तटस्था शक्ति है | जब वह माया के वशीभूत होता है तो वह बद्ध हो जाता है, किन्तु जब वह कृष्णभावनाभावित रहता है अर्थात् आध्यात्मिक शक्ति में सजग रहता है तो वह अपनी सहज स्थिति में होता है | इस प्रकार जब मनुष्य पूर्णज्ञान में होता है तो वह समस्त इन्द्रियतृप्ति को त्याग देता है अर्थात् समस्त इन्द्रियतृप्ति के कार्यकलापों का परित्याग कर देता है | इसका अभ्यास योगी करते हैं जो इन्द्रियों को भौतिक आसक्ति से रोकते हैं | किन्तु कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को तो ऐसी किसी भी वस्तु में अपनी इन्द्रिय लगाने का अवसर ही नहीं मिलता जो कृष्ण के निमित्त न हो | फलतः कृष्णभावनाभावित व्यक्ति संन्यासी तथा योगी साथ-साथ होता है | ज्ञान तथा इन्द्रियनिग्रह योग के ये दोनों प्रयोजन कृष्णभावनामृत द्वारा स्वतः पूरे हो जाते हैं | यदि मनुष्य स्वार्थ का त्याग नहीं कर पाता तो ज्ञान तथा योग व्यर्थ रहते हैं | जीवात्मा का मुख्य ध्येय तो समस्त प्रकार की आत्मतृप्ति को त्यागकर परमेश्र्वर की तुष्टि करने के लिए तैयार रहना है | कृष्णभावनाभावित व्यक्ति में किसी प्रकार की आत्मतृप्ति की इच्छा नहीं रहती | वह सदैव परमेश्र्वर की प्रसन्नता में लगा रहता है, अतः जिसे परमेश्र्वर के विषय में कुछ भी पता नहीं होता वही स्वार्थ पूर्ति में लगा रहता है क्योंकि कोई कभी निष्क्रिय नहीं रह सकता | कृष्णभावनामृत का अभ्यास करने से सारे कार्य सुचारू रूप से सम्पन्न हो जाते हैं |
Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 1
अध्याय 6 : ध्यानयोग
श्लोक 6 . 1
श्रीभगवानुवाच
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः |
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः || १ ||
श्रीभगवान् उवाच – भगवान् ने कहा; अनाश्रितः – शरण ग्रहण किये बिना; कर्म-फलम् – कर्मफल की; कार्यम् – कर्तव्य; कर्म- कर्म; करोति – करता है; यः – जो; सः – वह; संन्यासी – संन्यासी; च – भी; योगी – योगी; च – भी; न – नहीं; निः – रहित; अग्निः – अग्नि; न – न तो; च – भी; अक्रियः – क्रियाहीन |
भावार्थ
श्रीभगवान् ने कहा – जो पुरुष अपने कर्मफल के प्रति अनासक्त है और जो अपने कर्तव्य का पालन करता है, वही संन्यासी और असली योगी है | वह नहीं, जो न तो अग्नि जलाता है और न कर्म करता है |
तात्पर्य
इस अध्याय में भगवान् बताते हैं कि अष्टांगयोग पद्धति मन तथा इन्द्रियों को वश में करने का साधन है | किन्तु इस कलियुग में सामान्य जनता के लिए इसे सम्पन्न कर पाना अत्यन्त कठिन है | यद्यपि इस अध्याय में अष्टांगयोग पद्धति की संस्तुति की गई है, किन्तु भगवान् बल देते हैं कि कर्मयोग या कृष्णभावनामृत में कर्म करना इससे श्रेष्ठ है | इस संसार में प्रत्येक मनुष्य अपने परिवार के पालनार्थ तथा अपनी सामग्री के रक्षार्थ कर्म करता है, किन्तु कोई भी मनुष्य बिना किसी स्वार्थ, किसी व्यक्तिगत तृप्ति के, चाहे वह तृप्ति आत्मकेन्द्रित हो या व्यापक, कर्म नहीं करता | पूर्णता की कसौटी है – कृष्णभावनामृत में कर्म करना, कर्म के फलों का भोग करने के उद्देश्य से नहीं | कृष्णभावनामृत में कर्म करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है, क्योंकि सभी लोग परमेश्र्वर के अंश हैं | शरीर के अंग पुरे शरीर के लिए कार्य करते हैं | शरीर के अंग अपनी तृप्ति के लिए नहीं, अपितु पूरे शरीर की तुष्टि के लिए कार्य करते हैं | इसी प्रकार जो जीव अपनी तुष्टि के लिए नहीं, अपितु परब्रह्म की तुष्टि के लिए कार्य करता है, वही पूर्ण संन्यासी या पूर्ण योगी है |
कभी-कभी संन्यासी सोचते हैं कि उन्हें सारे कार्यों से मुक्ति मिल गई, अतः वे अग्निहोत्र यज्ञ करना बन्द कर देते हैं, लेकिन वस्तुतः वे स्वार्थी हैं क्योंकि उनका लक्ष्य निराकार ब्रह्म से तादात्मय स्थापित करना होता है | ऐसी इच्छा भौतिक इच्छा से तो श्रेष्ठ है, किन्तु यह स्वार्थ से रहित नहीं होती | इसी प्रकार जो योगी समस्त कर्म बन्द करके अर्धनिमीलित नेत्रों से योगाभ्यास करता है, वह भी आत्मतुष्टि की इच्छा से पूरित होता है | किन्तु कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को कभी भी आत्मतुष्टि की इच्छा नहीं रहती | उसका एकमात्र लक्ष्य कृष्ण को प्रसन्न करना होता है | त्याग के सर्वोच्च प्रतिक भगवान् चैतन्य प्रार्थना करते हैं –
न धनं न जनं ण सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये |
मम जन्मनि जन्मनीश्र्वरे भवताद्भक्तिरहैतुकी त्वयि ||
“हे सर्वशक्तिमान प्रभु! मुझे न तो धन-संग्रह की कामना है, ण मैं सुन्दर स्त्रियों के साथ रमण करने का अभिलाषी हूँ, न ही मुझे अनुयायियों की कामना हैं | मैं तो जन्म-जन्मान्तर आपकी प्रेमाभक्ति की अहैतुकी कृपा का ही अभिलाषी हूँ |”
Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 29
अध्याय 5 : कर्मयोग - कृष्णभावनाभावित कर्म
श्लोक 5 . 29
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्र्वरम् |
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति || २९ ||
भोक्तारम् – भोगने वाला, भोक्ता; यज्ञ – यज्ञ; तपसाम् – तपस्या का; सर्वलोक – सम्पूर्ण लोकों तथा उनके देवताओं का; महा-ईश्र्वरम् – परमेश्र्वर; सुहृदम् – उपकारी; सर्व – समस्त; भूतानाम् – जीवों का; ज्ञात्वा – इस प्रकार जानकर; माम् – मुझ (कृष्ण) को; शान्तिम् – भौतिक यातना से मुक्ति; ऋच्छति – प्राप्त करता है |
भावार्थ
मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परं भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्र्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शान्ति लाभ-करता है |
Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 27-28
अध्याय 5 : कर्मयोग - कृष्णभावनाभावित कर्म
श्लोक 5. 27-28
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्र्चक्षुश्र्चैवान्तरे भ्रुवो: |
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ || २७ ||
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः |
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः || २८ ||
स्पर्शान् – इन्द्रियविषयों यथा ध्वनि को; कृत्वा – करके; बहिः – बाहरी; बाह्यान् – अनावश्यक; चक्षुः – आँखें; च – भी; एव – निश्चय हि; अन्तरे – मध्य में; भ्रुवोः – भौहों के; प्राण-अपानौ – उर्ध्व तथा अधोगामी वायु; समौ – रुद्ध; कृत्वा – करके; नास-अभ्यन्तर – नथुनों के भीतर; चारिणौ – चलने वाले; यत – संयमित; इन्द्रिय – इन्द्रियाँ; मनः – मन; बुद्धिः – बुद्धि; मुनिः – योगी; मोक्ष – मोक्ष के लिए; परायणः – तत्पर; विगत – परित्याग करके; इच्छा – इच्छाएँ; भय – डर; क्रोधः – क्रोध; यः – जो; सदा – सदैव; मुक्तः – मुक्त; एव – निश्चय ही; सः – वह |
भावार्थ
समस्त इन्द्रियविषयों को बाहर करके, दृष्टि को भौंहों के मध्य में केन्द्रित करके, प्राण तथा अपान वायु को नथुनों के भीतर रोककर और इस तरह मन, इन्द्रियों तथा बुद्धि को वश में करके जो मोक्ष को लक्ष्य बनाता है वह योगी इच्छा, भय तथा क्रोध से रहित हो जाता है | जो निरन्तर इस अवस्था में रहता है, वह अवश्य ही मुक्त है |
तात्पर्य
कृष्णभावनामृत में रत होने पर मनुष्य तुरन्त ही अपने अध्यात्मिक स्वरूप को जान लेता है जिसके पश्चात् भक्ति के द्वारा वह परमेश्र्वर को समझता है | जब मनुष्य भक्ति करता है तो वह दिव्य स्थिति को प्राप्त होता है और अपने कर्म में भगवान् की उपस्थिति का अनुभव करने योग्य हो जाता है | यह विशेष स्थिति मुक्ति कहलाती है |
मुक्ति विषयक उपर्युक्त सिद्धान्तों का प्रतिपादन करके श्रीभगवान् अर्जुन को यह शिक्षा देते हैं कि मनुष्य किस प्रकार अष्टांगयोग का अभ्यास करके इस स्थिति को प्राप्त होता है | यह अष्टांगयोग आठ विधियों – यं, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि में विभाजित है | छठे अध्याय में योग के विषय में विस्तृत व्याख्या की गई है, पाँचवे अध्याय के अन्त में तो इसका प्रारम्भिक विवेचन हि दिया गया है |
योग में प्रत्याहार विधि से शब्द, स्पर्श, रूप, स्वाद तथा गंध का निराकरण करना होता है और तब दृष्टि को दोनों भौंहों के बिच लाकर अधखुली पलकों से उसे नासाग्र पर केन्द्रित करना पड़ता है | आँखों को पूरी तरह बन्द करने से कोई लाभ नहीं होता क्योंकि तब सो जाने की सम्भावना रहती है | न ही आँखों को पूरा खुला रखने से कोई लाभ है क्योंकि तब तो इन्द्रियविषयों द्वारा आकृष्ट होने का भय बना रहता है | नथुनों के भीतर श्र्वास की गति को रोकने के लिए प्राण तथा अपान वायुओं को सैम किया जाता है | ऐसे योगाभ्यास से मनुष्य अपनी इन्द्रियों के ऊपर नियन्त्रण प्राप्त करता है, बाह्य इन्द्रियविषयों से दूर रहता है और अपनी मुक्ति की तैयारी करता है | इस योग विधि से मनुष्य समस्त प्रकार के भय तथा क्रोध से रहित हो जाता है और परमात्मा की उपस्थिति का अनुभव करता है | दूसरे शब्दों में, कृष्णभावनामृत योग के सिद्धान्तों को सम्पन्न करने की सरलतम विधि है | अगले अध्याय में इसकी विस्तार से व्याख्या होगी | किन्तु कृष्णभावनाभावित व्यक्ति सदैव भक्ति में लीन रहता है जिससे उसकी इन्द्रियों के अन्यत्र प्रवृत्त होने का भय नहीं रह जाता | अष्टांगयोग की अपेक्षा इन्द्रियों को वश में करने की यः अधिक उत्तम विधि है |
Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 26
अध्याय 5 : कर्मयोग - कृष्णभावनाभावित कर्म
श्लोक 5 . 26
कामक्रोधविमुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् |
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् || २६ ||
काम – इच्छाओं; क्रोध – तथा क्रोध से; विमुक्तानाम् – मुक्त पुरुषों की; यतीनाम् – साधु पुरुषों की; यत-चेतसाम् – मन के ऊपर संयम रखने वालों की; अभितः – निकट भविष्य में आश्र्वस्त; ब्रह्म-निर्वाणम् – ब्रह्म में मुक्ति; वर्तते – होती है; विदित-आत्मानम् – स्वरुपसिद्धों की |
भावार्थ
जो क्रोध तथा समस्त भौतिक इच्छाओं से रहित हैं, जो स्वरुपसिद्ध, आत्मसंयमी हैं और संसिद्धि के लिए निरन्तर प्रयास करते हैं उनकी मुक्ति निकट भविष्य में सुनिश्चित है |
Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 25
अध्याय 5 : कर्मयोग - कृष्णभावनाभावित कर्म
श्लोक 5.25
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः |
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः || २५ ||
लभन्ते – प्राप्त करते हैं; ब्रह्म-निर्वाणम् – मुक्ति; ऋषयः – अन्तर से क्रियाशील रहने वाले; क्षीण-कल्मषाः – समस्त पापों से रहित; छिन्न – निवृत्त होकर; द्वैधाः – द्वैत से; यत-आत्मानः – आत्म-साक्षात्कार में निरत; सर्वभूत – समस्त जीवों के; हिते – कल्याण में; रताः – लगे हुए |
भावार्थ
जो लोग संशय से उत्पन्न होने वाले द्वैत से परे हैं, जिनके मन आत्म-साक्षात्कार में रत हैं, जो समस्त जीवों के कल्याणकार्य करने में सदैव व्यस्त रहते हैं और जो समस्त पापों से रहित हैं, वे ब्रह्मनिर्वाण (मुक्ति) को प्राप्त होते हैं |
तात्पर्य
केवल वही व्यक्ति सभी जीवों के कल्याणकार्य में रत कहा जाएगा जो पूर्णतया कृष्णभावनाभावित है | जब व्यक्ति को यह वास्तविक ज्ञान हो जाता है कि कृष्ण हि सभी वस्तुओं के उद्गम हैं तब वह जो भी कर्म करता है सबों के हित को ध्यान में रखकर करता है | परमभोक्ता, परमनियन्ता तथा परमसखा कृष्ण को भूल जाना मानवता के क्लेशों का कारण है | अतः समग्र मानवता के लिए कार्य करना सबसे बड़ा कल्याणकार्य है | कोई भी मनुष्य ऐसे श्रेष्ठ कार्य में तब तक नहीं लग पाता जब तक वह स्वयं मुक्त न हो | कृष्णभावनाभावित मनुष्य के हृदय में कृष्ण की सर्वोच्चता पर बिलकुल संदेह नहीं रहता | वह इसीलिए सन्देह नहीं करता क्योंकि वह समस्त पापों से रहित होता है | ऐसा है – यह दैवी प्रेम |
जो व्यक्ति मानव समाज का भौतिक कल्याण करने में ही व्यस्त रहता है वह वास्तव में किसी की भी सहायता नहीं कर सकता | शरीर तथा मन की क्षणिक खुशी सन्तोषजनक नहीं होती | जीवन-संघर्ष में कठिनाइयों का वास्तविक कारण मनुष्य द्वारा परमेश्र्वर से अपने सम्बन्ध की विस्मृति में ढूँढा जा सकता है | जब मनुष्य कृष्ण के साथ अपने सम्बन्ध के प्रति सचेष्ट रहता है जो वह वास्तव में मुक्तात्मा होता है, भले हि वह भौतिक शरीर के जाल में फँसा हो |
Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 24
अध्याय 5 : कर्मयोग - कृष्णभावनाभावित कर्म
श्लोक 5 . 24
योSन्तःसुखोSन्तरारामस्तथान्तज्योर्तिरेव यः |
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोSधिगच्छति || २४ ||
यः – जो; अन्तः-सुखः – अन्तर में सुखी; अन्तः-आरामः – अन्तर में रमण करने वाला अन्तर्मुखी; तथा – और; अन्तः-ज्योतिः – भीतर-भीतर लक्ष्य करते हुए; एव – निश्चय हि; यः – जो कोई; सः – वह; योगी – योगी; ब्रह्म-निर्वाणम् – परब्रह्म में मुक्ति; ब्रह्म-भूतः – स्वरुपसिद्ध; अधिगच्छति – प्राप्त करता है |
जो अन्तःकरण में सुख का अनुभव करता है, जो कर्मठ है और अन्तःकरण में ही रमण करता है तथा जिसका लक्ष्य अन्तर्मुखी होता है वह सचमुच पूर्ण योगी है | वह परब्रह्म में मुक्त पाता है और अन्ततोगत्वा ब्रह्म को प्राप्त होता है |
तात्पर्य
जब तक मनुष्य अपने अन्तःकरण में सुख का अनुभव नहीं करता तब तक भला बाह्यसुख को प्राप्त कराने वाली बाह्य क्रियाओं से वह कैसे छूट सकता है? मुक्त पुरुष वास्तविक अनुभव द्वारा सुख भोगता है | अतः वह किसी भी स्थान में मौनभाव से बैठकर अन्तःकरण में जीवन के कार्यकलापों का आनन्द लेता है | ऐसा मुक्त पुरुष कभी बाह्य भौतिक सुख की कामना नहीं करता | यह अवस्था ब्रह्मभूत कहलाती है, जिसे प्राप्त करने पर भगवद्धाम जाना निश्चित है |
Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 23
अध्याय 5 : कर्मयोग - कृष्णभावनाभावित कर्म
श्लोक 5 . 23
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् |
कामक्रोधद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः || २३ ||
शक्नोति – समर्थ है; इह एव – इसी शरीर में; यः – जो; सोढुम् – सहन करने के लिए; प्राक् – पूर्व; शरीर – शरीर; विमोक्षनात् – त्याग करने से; काम – इच्छा; क्रोध – तथा क्रोध से; उद्भवम् – उत्पन्न; वेगम् – वेग को; सः – वह; युक्तः – समाधि में; सः – वही; सुखी – सुखी; नरः – मनुष्य |
भावार्थ
यदि इस शरीर को त्यागने के पूर्व कोई मनुष्य इन्द्रियों के वेगों को सहन करने तथा इच्छा एवं क्रोध के वेग को रोकने में समर्थ होता है, तो वह इस संसार में सुखी रह सकता है |
तात्पर्य
यदि कोई आत्म-साक्षात्कार के पथ पर अग्रसर होना चाहता है तो उसे भौतिक इन्द्रियों के वेग को रोकने का प्रयत्न करना चाहिए | ये वेग हैं – वाणीवेग, क्रोधवेग, मनोवेग, उदरवेग, उपस्थवेद तथा जिह्वावेग | जो व्यक्ति इन विभिन्न इन्द्रियों के वेगों को तथा मन को वश में करने में समर्थ है वह गोस्वामी या स्वामी कहलाता है | ऐसे गोस्वामी नितान्त संयमित जीवन बिताते हैं और इन्द्रियों के वेगों का तिरस्कार करते हैं | भौतिक इच्छाएँ पूर्ण न होने पर क्रोध उत्पन्न होता है और इस प्रकार मन, नेत्र तथा वक्षस्थल उत्तेजित होते हैं | अतः इस शरीर का परित्याग करने के पूर्व मनुष्य को इन्हें वश में करने का अभ्यास करना चाहिए | जो ऐसा कर सकता है वह स्वरुपसिद्ध माना जाता है और आत्म-साक्षात्कार की अवस्था में वह सुखी रहता है | योगी का कर्तव्य है कि वह इच्छा और क्रोध को वश में करने का भरसक प्रयत्न करे |
Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 22
अध्याय 5 : कर्मयोग - कृष्णभावनाभावित कर्म
श्लोक 5 . 22
ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते |
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः || २२ ||
ये – जो; हि – निश्चय हि; संस्पर्श-जा – भौतिक इन्द्रियों के स्पर्श से उत्पन्न; भोगाः – भोग; दुःख – दुःख; योनयः – स्त्रोत, कारण; एव – निश्चय हि; ते – वे; आदि – प्रारम्भ; अन्तवन्त – अन्तकाले; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र; न – कभी नहीं; तेषु – उनमें; रमते – आनन्द लेता है; बुधः – बुद्धिमान् मनुष्य |
भावार्थ
बुद्धिमान् मनुष्य दुख के कारणों में भाग नहीं लेता जो कि भौतिक इन्द्रियों के संसर्ग से उत्पन्न होते हैं | हे कुन्तीपुत्र! ऐसे भोगों का आदि तथा अन्त होता है, अतः चतुर व्यक्ति उनमें आनन्द नहीं लेता |
तात्पर्य
भौतिक इन्द्रियसुख उन इन्द्रियों के स्पर्श से उद्भूत् हैं जो नाशवान हैं क्योंकि शरीर स्वयं नाशवान है | मुक्तात्मा किसी नाशवान वास्तु में रूचि नहीं रखता | दिव्या आनन्द के सुखों से भलीभाँति अवगत वह भला मिथ्या सुख के लिए क्यों सहमत होगा ? पद्मपुराण में कहा गया है –
रमन्ते योगिनोSनन्ते सत्यानन्दे चिदात्मनि |
इति राम पदे नासौ परं ब्रह्मा भिधीयते ||
“योगीजन परमसत्य में रमण करते हुए अनन्त दिव्यसुख प्राप्त करते हैं इसीलिए परमसत्य को भी राम कहा जाता है |”
भागवत में (५.५.१) भी कहा गया है –
नायं देहो देहभाजां नृलोके कष्टान् कामानर्हते विड्भुजां ये |
तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं शुद्धयेद् यस्माद् ब्रह्मसौख्यं त्वनन्तम् ||
“हे पुत्रो! इस मनुष्ययोनि में इन्द्रियसुख के लिए अधिक श्रम करना व्यर्थ है | ऐसा सुख तो सूकरों को भी प्राप्य है | इसकी अपेक्षा तुम्हें इस जीवन में ताप करना चाहिए, जिससे तुम्हारा जीवन पवित्र हो जाय और तुम असीम दिव्यसुख प्राप्त कर सको |”
अतः जो यथार्थ योगी या दिव्य ज्ञानी हैं वे इन्द्रियसुखों की ओर आकृष्ट नहीं होते क्योंकि ये निरन्तर भवरोग के कारण हैं | वो भौतिकसुख के प्रति जितना ही आसक्त होता है, उसे उतने ही अधिक भौतिक दुख मिलते हैं |
Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 21
अध्याय 5 : कर्मयोग - कृष्णभावनाभावित कर्म
श्लोक 5 . 21
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् |
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्र्नुते || २१ ||
बाह्य-स्पर्शेषु – बाह्य इन्द्रिय सुख में; असक्त-आत्मा – अनासक्त पुरुष; विन्दति – भोग करता है; आत्मनि – आत्मा में; यत् – जो; सुखम् – सुख; सः – वह; ब्रह्म-योग – ब्रह्म में एकाग्रता द्वारा; युक्त-आत्मा – आत्म युक्त या समाहित; सुखम् – सुख; अक्षयम् – असीम; अश्नुते – भोगता है |
भावार्थ
ऐसा मुक्त पुरुष भौतिक इन्द्रियसुख की ओर आकृष्ट नहीं होता, अपितु सदैव समाधि में रहकर अपने अन्तर में आनन्द का अनुभव करता है | इस प्रकार स्वरुपसिद्ध व्यक्ति परब्रह्म में एकाग्रचित्त होने के कारण असीम सुख भोगता है |
तात्पर्य
कृष्णभावनामृत के महान भक्त श्री यामुनाचार्य ने कहा है –
यदवधि मम चेतः कृष्णपादारविन्दे
नवनवरसधामन्युद्यतं रन्तु मासीत् |
तदवधि बत नारीसंगमे स्मर्यमाने
भवति मुखविकारः सृष्ठु निष्ठीवनं च ||
“जब से मैं कृष्ण की दिव्य प्रेमाभक्ति में लगकर उनमें नित्य नवीन आनन्द का अनुभव करने में लगा हूँ और मेरे होंठ अरुचि से सिमट जाते हैं |” ब्रह्मयोगी अथवा कृष्णभावनाभावित व्यक्ति भगवान् की प्रेमाभक्ति में इतना अधिक लीन रहता है कि इन्द्रियसुख में उसकी तनिक भी रूचि नहीं रह जाती | भौतिकता की दृष्टि में कामसुख ही सर्वोपरि आनन्द है | सारा संसार उसी के वशीभूत है और भौतिकतावादी लोग तो इस प्रोत्साहन के बिना कोई कार्य ही नहीं कर सकते | किन्तु कृष्णभावनामृत में लीन व्यक्ति कामसुख के बिना ही उत्साहपूर्वक अपना कार्य करता रहता है | यही अतम-साक्षात्कार की कसौटी है | आत्म-साक्षात्कार तथा कामसुख कभी साथ-साथ नहीं चलते | कृष्णभावनाभावित व्यक्ति जीवन्मुक्त होने के कारण किसी प्रकार के इन्द्रियसुख द्वारा आकर्षित नहीं होता |
Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 20
अध्याय 5 : कर्मयोग - कृष्णभावनाभावित कर्म
श्लोक 5 . 20
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् |
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः || २० ||
न – कभी नहीं; प्रह्रष्ये – हर्षित होता है; प्रियम् – प्रिय को; प्राप्य – प्राप्त करके; न – नहीं; उद्विजेत् – विचलित होता है; प्राप्य – प्राप्त करके; च – भी; अप्रियम् – अप्रिय को; स्थिर-बुद्धिः – आत्मबुद्धि, कृष्णचेतना; असम्मूढः – मोहरहित, संशयरहित; ब्रह्म-वित् – परब्रह्म को जानने वाला; ब्रह्मणि – ब्रह्म में; स्थितः – स्थित |
भावार्थ
जो न तो प्रिय वस्तु को पाकर हर्षित होता है और न अप्रिय को पाकर विचलित होता है, जो स्थिरबुद्धि है, जो मोहरहित और भगवद्विद्या को जानने वाला है वह पहले से ही ब्रह्म में स्थित रहता है |
तात्पर्य
यहाँ पर स्वरूपसिद्ध व्यक्ति के लक्षण दिये गये हैं | पहला लक्षण यह है कि उसमें शरीर और आत्मतत्त्व के तादात्म्य का भ्रम नहीं रहता | वह यह भलीभाँति जानता है कि मैं यह शरीर नहीं हूँ, अपितु भगवान् का एक अंश हूँ | अतः कुछ प्राप्त होने पर न तो उसे प्रसन्नता होती है और न शरीर की कुछ हानि होने पर शोक होता है | मन की यह स्थिरता स्थिरबुद्धि या आत्मबुद्धि कहलाती है | अतः वह न तो स्थूल शरीर को आत्मा मानने की भूल करके मोहग्रस्त होता है और न शरीर को स्थायी मानकर आत्मा के अस्तित्व को ठुकराता है | इस ज्ञान के कारण वह परमसत्य अर्थात् ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान् के ज्ञान को भलीभाँति जान लेता है | इस प्रकार वह अपने स्वरूप को जानता है और परब्रह्म से हर बात में तदाकार होने का कभी यत्न नहीं करता | इसे ब्रह्म-साक्षात्कार या आत्म-साक्षात्कार कहते हैं | ऐसी स्थिरबुद्धि कृष्णभावनामृत कहलाती है |
Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 12
अध्याय 5 : कर्मयोग - कृष्णभावनाभावित कर्म
श्लोक 5 . 12
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् |
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते || १२ ||
युक्तः – भक्ति में लगा हुआ; कर्म-फलम् – समस्त कर्मों के फल; त्यक्त्वा – त्यागकर; शान्तिम् – पूर्ण शान्ति को; आप्नोति – प्राप्त करता है; नैष्ठिकीम् – अचल; अयुक्तः – कृष्णभावना से रहित; काम-कारेण – कर्मफल को भोगने के कारण; फले – फल में; सक्तः – आसक्त; निबध्यते – बँधता है |
भावार्थ
निश्चल भक्त शुद्ध शान्ति प्राप्त करता है क्योंकि वह समस्त कर्मफल मुझे अर्पित कर देता है, किन्तु जो व्यक्ति भगवान् से युक्त नहीं है और जो अपने श्रम का फलकामी है, वह बँध जाता है |
तात्पर्य
एक कृष्ण भावना भावित व्यक्ति तथा देहात्मबुद्धि वाले व्यक्ति में यह अन्तर है कि पहला तो कृष्ण के प्रति आसक्त रहता है जबकि दूसरा अपने कर्मों के प्रति आसक्त रहता है | जो व्यक्ति कृष्ण के प्रति आसक्त रहकर उन्हीं के लिए कर्म करता है वह निश्चय ही मुक्त पुरुष है और उसे अपने कर्मफल की कोई चिन्ता नहीं होती | भागवत में किसी कर्म के फल की चिन्ता का कारण परमसत्य के ज्ञान के बिना द्वैतभाव में रहकर कर्म करना बताया गया है | कृष्ण श्रीभगवान् हैं | कृष्णभावनामृत में कोई द्वैत नहीं रहता | जो कुछ विद्यमान है वह कृष्ण का प्रतिफल है और कृष्ण सर्वमंगलमय हैं | अतः कृष्णभावनामृत में सम्पन्न सारे कार्य परम पद पर हैं | वे दिव्य होते हैं और उनका कोई भौतिक प्रभाव नहीं पड़ता | इस कारण कृष्णभावनामृत में जीव शान्ति से पूरित रहता है | किन्तु जो इन्द्रियतृप्ति के लिए लोभ में फँसा रहता है, उसे शान्ति नहीं मिल सकती | यही कृष्णभावनामृत का रहस्य है – यह अनुभूति कि कृष्ण के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, शान्ति तथा अभय का पद है |
Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 11
अध्याय 5 : कर्मयोग - कृष्णभावनाभावित कर्म
श्लोक 5 . 11
कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि |
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मश्रुद्धये || ११ ||
कायेन – शरीर से; मनसा – मन से; बद्धया – बुद्धि से; केवलैः – शुद्ध; इन्द्रियैः – इन्द्रियों से; अपि – भी; योगिनः – कृष्णभावनाभावित व्यक्ति; कर्म – कर्म; कुर्वन्ति – करते हैं; सङ्गं – आसक्ति; त्यक्त्वा – त्याग कर; आत्म- आत्मा की; शुद्धये – शुद्धि के लिए |
भावार्थ
योगीजन आसक्तिरहित होकर शरीर, मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों के द्वारा भी केवल शुद्धि के लिए कर्म करते हैं |
तात्पर्य
जब कोई कृष्णभावनामृत में कृष्ण की इन्द्रियतृप्ति के लिए शरीर, मन, बुद्धि अथवा इन्द्रियों द्वारा कर्म करता है तो वह भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाता है | कृष्णभावनाभावित व्यक्ति के कार्यों से कोई भौतिक फल प्रकट नहीं होता | अतः सामान्य रूप से सदाचार कहे जाने वाले शुद्ध कर्म कृष्णभावनामृत में रहते हुए सरलता से सम्पन्न किये जा सकते है | श्रील रूप गोस्वामी में भक्तिरसामृत सिन्धु में (१.२.१८७) इसका वर्णन इस प्रकार किया है –
ईहा यस्य हरेर्दास्ये कर्मणा मनसा गिरा |
निखिलास्वप्यवस्थासु जीवन्मुक्तः स उच्यते ||
“अपने शरीर, मन, बुद्धि तथा वाणी से कृष्णभावनामृत में कर्म करता हुआ (कृष्णसेवा में) व्यक्ति इस संसार में भी मुक्त रहता है, भले ही वह तथाकथित अनेक भौतिक कार्यकलापों में व्यस्त क्यों न रहे |” उसमें अहंकार नहीं रहता क्योंकि वह इसमें विश्र्वास नहीं रखता कि वह भौतिक शरीर है अथवा यह शरीर उसका है | वह जानता है कि वह यह शरीर नहीं है और न यह शरीर ही उसका है | वह स्वयं कृष्ण का है और उसका यह शरीर भी कृष्ण की सम्पत्ति आदि से उत्पन्न प्रत्येक वस्तु को, जो भी उसके अधिकार में है, कृष्ण की सेवा में लगता है और उस अहंकार से रहित होता है जिसके कारन मनुष्य सोचता है कि मैं शरीर हूँ | यही कृष्णभावनामृत की पूर्णावस्था है |
Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 8-9
अध्याय 5 : कर्मयोग - कृष्णभावनाभावित कर्म
श्लोक 5 . 8-9
नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् |
पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्र्नन्गच्छन्स्वपन्श्र्वसन् || ८ ||
प्रलपन्विसृजन्गृह्रन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि |
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् || ९ ||
न – नहीं; एव – निश्चय ही; किञ्चित् – कुछ भी; करोमि – करता हूँ; इति – इस प्रकार; युक्तः – दैवी चेतना में लगा हुआ; मन्येत – सोचता है; तत्त्ववित् – सत्य को जानने वाला; पश्यन् – देखता हुआ; शृण्वन् – सुनता हुआ; स्पृशन् – स्पर्श करता हुआ; जिघ्रन – सूँघता हुआ; अश्नन् – खाता हुआ; गच्छन्- जाता; स्वपन् – स्वप्न देखता हुआ; श्र्वसन् – साँस लेता हुआ; प्रलपन् – वाट करता हुआ; विसृजन् – त्यागता हुआ; गृह्णन् – स्वीकार करता हुआ; उन्मिषन् – खोलता हुआ; निमिषन् – बन्द करता हुआ; अपि – तो भी; इन्द्रियाणि – इन्द्रियों को; इन्द्रिय-अर्थेषु – इन्द्रिय-तृप्ति में; वर्तन्ते – लगी रहने देकर; इति – इस प्रकार; धारयन् – विचार करते हुए |
भावार्थ
दिव्य भावनामृत युक्त पुरुष देखते, सुनते, स्पर्श करते, सूँघते, खाते, चलते-फिरते, सोते तथा श्र्वास लेते हुए भी अपने अन्तर में सदैव यही जानता रहता है कि वास्तव में वह कुछ भी नहीं करता | बोलते, त्यागते, ग्रहण करते या आँखे खोलते-बन्द करते हुए भी वह यह जानता रहता है कि भौतिक इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त है और वह इन सबसे पृथक् है |
तात्पर्य
चूँकि कृष्णभावनाभावित व्यक्ति का जीवन शुद्ध होता है फलतः उसे निकट तथा दूरस्थ पाँच कारणों – करता, कर्म, अधिष्ठान, प्रयास तथा भाग्य – पर निर्भर किसी कार्य से कुछ लेना-देना नहीं रहता | इसका कारण यह है कि वह भगवान् की दिव्य देवा में लगा रहता है | यद्यपि ऐसा प्रतीत होता है कि वह अपने शरीर तथा इन्द्रियों से कर्म कर रहा है, किन्तु वह अपनी वास्तविक स्थिति के प्रति सचेत रहता है जो कि आध्यात्मिक व्यस्तता है | भौतिक चेतना में इन्द्रियाँ इन्द्रियतृप्ति में लगी रहती हैं, किन्तु कृष्णभावनामृत में वे कृष्ण की इन्द्रियों की तुष्टि में लगी रहती हैं | अतः कृष्णभावनाभावित व्यक्ति सदा मुक्त रहता है, भले ही वह ऊपर से भौतिक कार्यों में लगा हुआ दिखाई पड़े | देखने तथा सुनने के कार्य ज्ञानेन्द्रियों के कर्म हैं जबकि चलना, बोलना, मत त्यागना आदि कर्मेन्द्रियों के कार्य हैं | कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कभी भी इन्द्रियों के कार्यों से प्रभावित नहीं होता | वह भगवत्सेवा के अतिरिक्त कोई दूसरा कार्य नहीं कर सकता क्योंकि उसे ज्ञात है कि वह भगवान् का शाश्र्वत दास है |
Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 7
अध्याय 5 : कर्मयोग - कृष्णभावनाभावित कर्म
श्लोक 5 . 7
योगयुक्तो विश्रुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः |
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते || ७ ||
योग-युक्तः – भक्ति में लगे हुए; विशुद्ध-आत्मा – शुद्ध आत्मा; विजित-आत्मा – आत्म-संयमी; जित-इन्द्रियः – इन्द्रियों को जितने वाला; सर्व-भूत – समस्त जीवों के प्रति; आत्म-भूत-आत्मा – दयालु; कुर्वन् अपि – कर्म में लगे रहकर भी; न – कभी नहीं; लिप्यते – बँधता है |
भावार्थ
जो भक्तिभाव में कर्म करता है, जो विशुद्ध आत्मा है और अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में रखता है, वह सबों को प्रिय होता है और सभी लोग उसे प्रिय होते हैं | ऐसा व्यक्ति कर्म करता हुआ भी कभी नहीं बँधता |
तात्पर्य
जो कृष्णभावनामृत के कारण मुक्तिपथ पर है वह प्रत्येक जीव को प्रिय होता है और प्रत्येक जीव उसके लिए प्यारा है | यह कृष्णभावनामृत के कारण होता है | ऐसा व्यक्ति किसी भी जीव को कृष्ण के पृथक् नहीं सोच पाता, जिस प्रकार वृक्ष की पत्तियाँ तथा टहनियाँ वृक्ष से भिन्न नहीं होती | वह भलीभाँति जानता है कि वृक्ष की पत्तियाँ तथा टहनियाँ वृक्ष से भिन्न नहीं होतीं | वह भलीभाँति जानता है कि वृक्ष की जड़ में डाला गया जल समस्त पत्तियों तथा टहनियों में फैल जाता है अथवा आमाशय को भोजन देने से शक्ति स्वतः पुरे शरीर में फैल जाती है | चूँकि कृष्णभावनामृत में कर्म करने वाला सबों का दास होता है, अतः वह हर एक को प्रिय होता है | चूँकि प्रत्येक व्यक्ति उसके कर्म से प्रसन्न रहता है, अतः उसकी चेतना शुद्ध रहती है | चूँकि उसकी चेतना शुद्ध रहती है, अतः उसका मन पूर्णतया नियंत्रण में रहता है | मन के नियंत्रित होने से उसकी इन्द्रियाँ संयमित रहती है | चूँकि उसका मन सदैव कृष्ण में स्थिर रहता है, अतः उसके विचलित होने का प्रश्न ही नहीं उठता | न ही उसे कृष्ण से सम्बद्ध कथाओं के अतिरिक्त अन्य कार्यों में अपनी इन्द्रियों को लगाने का अवसर मिलता है | वह कृष्णकथा के अतिरिक्त और कुछ सुनना नहीं चाहता, वह कृष्ण को अर्पित किए हुआ भोजन के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं खाना चाहता और न ऐसे किसी स्थान में जाने की इच्छा रखता है जहाँ कृष्ण सम्बन्धी कार्य न होता हो | अतः उसकी इन्द्रियाँ वश में रहती हैं | ऐसा व्यक्ति जिसकी इन्द्रियाँ संयमित हो, वह किसी के प्रति अपराध नहीं कर सकता | इस पर कोई यह प्रश्न कर सकता है, तो फिर अर्जुन अन्यों के प्रति युद्ध में आक्रामक क्यों था? क्या वह कृष्णभावनाभावित नहीं था? वस्तुतः अर्जुन ऊपर से ही आक्रामक था, क्योंकि जैस कि द्वितीय अध्याय में बताया जा चुका है, आत्मा के अवध्य होने के कारण युद्धभूमि में एकत्र हुए सारे व्यक्ति अपने-अपने स्वरूप में जीवित बने रहेंगे | अतः अतः अध्यात्मिक दृष्टि से कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में कोई मारा नहीं गया | वहाँ पर स्थित कृष्ण की आज्ञा से केवल उनके वस्त्र बदल दिये गये | अतः अर्जुन कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में युद्ध करता हुआ भी वस्तुतः युद्ध नहीं कर रहा था | वह तो पूर्ण कृष्णभावनामृत में कृष्ण के आदेश का पालन मात्र कर रहा था | ऐसा व्यक्ति कभी कर्मबन्धन से नहीं बँधता |
Bhagavad Gita 5.6 in Hindi
अध्याय 5 : कर्मयोग - कृष्णभावनाभावित कर्म
श्लोक 5 . 6
संन्यासस्तु महाबाहो दु:खमाप्तुमयोगतः |
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति || ६ ||
संन्यासः – संन्यास आश्रम; तु – लेकिन; महाबाहो – हे बलिष्ठ भुजाओं वाले; दुःखम् – दुख; आप्तुम् – से प्रभावित; अयोगतः – भक्ति के बिना; योग-युक्तः – भक्ति में लगा हुआ; मुनिः – चिन्तक; ब्रह्म – परमेश्र्वर को; न चिरेण – शीघ्र ही; अधिगच्छति – प्राप्त करता है |
भावार्थ
भक्ति में लगे बिना केवल समस्त कर्मों का परित्याग करने से कोई सुखी नहीं बन सकता | परन्तु भक्ति में लगा हुआ विचारवान व्यक्ति शीघ्र ही परमेश्र्वर को प्राप्त कर लेता है |
तात्पर्य
संन्यासी दो प्रकार के होते हैं | मायावादी संन्यासी सांख्यदर्शन के अध्ययन में लगे रहते हैं तथा वैष्णव संन्यासी वेदान्त सूत्रों के यथार्थ भाष्य भागवत-दर्शन के अध्ययन में लगे रहते हैं | मायावादी संन्यासी भी वेदान्त सूत्रों का अध्ययन करते हैं, किन्तु वे शंकराचार्य द्वारा प्रणीत शारीरिक भाष्य का उपयोग करता हैं |भागवत सम्प्रदाय के छात्र पांचरा त्रिकी विधि से भगवान् की भक्ति करने में लगे रहते हैं | अतः वैष्णव संन्यासियों को भगवान् की दिव्यसेवा के लिए अनेक प्रकार के कार्य करने होते हैं | उन्हें भौतिक कार्यों से सरोकार नहीं रहता, किन्तु तो भी वे भगवान् की भक्ति में नाना प्रकार के कार्य करते हैं | किन्तु मायावादी संन्यासी, जो सांख्य तथा वेदान्त के अध्ययन एवं चिन्तन में लगे रहते हैं, वे भगवान् की दिव्य भक्ति का आनन्द नहीं उठा पाते | चूँकि उनका अध्ययन अत्यन्त जटिल होता है, अतः वे कभी-कभी ब्रह्मचिन्तन से ऊब कर समुचित बोध के बिना भागवत की शरण ग्रहण करते हैं | फलस्वरूप श्रीमद्भागवत का भी अध्ययन उनके लिए कष्टकर होता है | मायावादी संन्यासियों का शुष्क चिन्तन तथा कृत्रिम साधनों से निर्विशेष विवेचना उनके लिए व्यर्थ होती है | भक्ति में लगे हुए वैष्णव संन्यासी अपने दिव्य कर्मों को करते हुए प्रसन्न रहते हैं और यह भी निश्चित रहता है कि वे भगवद्धाम को प्राप्त होंगे ! मायावादी संन्यासी कभी-कभी आत्म-साक्षात्कार के पथ से निचे गिर जाते हैं और फिर से समाजसेवा, परोपकार जैसे भौतिक कर्म में प्रवृत्त होते हैं | अतः निष्कर्ष यह निकला कि कृष्णभावनामृत के कार्यों में लगे रहने वाले लोग ब्रह्म-अब्रहम विषयक साधारण चिन्तन में लगे संन्यासियों से श्रेष्ठ हैं, यद्यपि वे भी अनेक जन्मों के बाद कृष्णभावनाभावित हो जाते हैं |