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जब मैंने उसे पहली दफ़अ देखा था, तो उसकी उन्मुक्त हंसी, शोख चंचलता, गहरी और मोह लेने वाली मुस्कुराहट, उसकी तिलस्मी आँखें देखकर मुझे गुलमुहर याद आया था।
उसके बाद मैं आते जाते हुए रास्ते में जब भी गुलमोहर को देखता, तो मेरी आंखों में अनायास ही उसका चेहरा उभर आता और मैं मुस्कुरा उठता।
धीरे धीरे न जाने कब वो मेरे ज़ेहन में,मेरे ख़यालों में और मेरी रूह में भी पैवस्त हो गई मुझे ख़बर ही नहीं हुई।
जब मैं लिखने बैठता तो चुपके से दबे पांव न जाने कैसे वो कागज़ पर उतर आती।उसके अक्स मेरी ग़ज़लों,नज़्मों और कहानियों में उभरने लगे थे।और मुझे इसका इल्म ही नहीं था।
जब ये रंग गहरे होने लगे,तब उसका अक्स उभर कर सामने आया और मैं हैरान था कि कैसे एक लड़की मेरे दिलो-दिमाग़ पर तारी हो चुकी है।कैसे मैं एक नए एहसास की गिरफ़्त में आ चुका हूँ। मैं उसके ख़्वाबो-ख़यालों में मह्व रहने लगा था।
मैं अपने लिखने में उसे गुलमुहर कहा करता था।यह सोचकर कि ज़िन्दगी के किसी मोड़ पर अगर कोई करिश्मा हुआ,और अगर उसने अपने किसी एकांत में मुझे पढ़ा, तो वह ज़ुरूर समझ जाएगी कि कोई उसे बला की शिद्दत से इश्क़ करता है। वह ज़ुरूर ही मेरी ग़ज़लों के गुलमुहर में ख़ुद के अक्स तलाश कर लेगी।यह एक अज़ीब सा यकीन था मेरा, या मेरा भ्रम... जो भी था लेकिन मुझे यही लगता रहा ।