
आज की गुफ्तुगू गुलज़ार साहब की तरफ से। सुनिए उनकी रचना पहाड़ और उनके जीवन के बारे में @kavyaguftugu के साथ.
पिछली बार भी आया था
तो इसी पहाड़ ने
नीचे खड़ा था
मुझसे कहा था
तुम लोगों के कद क्यूँ छोटे रह जाते हैं ?
आओ, हाथ पकड़ लो मेरा
पसलियों पर पांव रखो ऊपर आ जाओ
आओ ठीक से चेहरा तो देखूं?
तुम कैसे लगते हो
जैसे meri चींटियों को तुम अलग अलग पहचान नहीं सकते
मुझको भी तुम एक ही जैसे लगते हो सब
एक ही फर्क है
मेरी कोई चींटी जो बदन पर चढ़ जाए
तो चुटकी से पकड़ के फेक उसको मार दिया करते हो तुम
मैं ऐसा नहीं करता
मेरे समोवार देखो,
कितने उचें उचें कद हैं इनके
तुमसे सात गुना तो होंगे?
कुछ तो दस या बारह गुना हैं
उम्रे देखो उसकी तुम,
कितनी बढ़ी हैं, सदियों जिंदा रहते हैं
कह देते हो कहने को तुम
लेकिन अपने बड़ों की इज्ज़त करते नहीं तुम
इसीलिए तुम लोगों के कद
इतने छोटे रह जाते हैं
इतना अकेला नहीं हूँ मैं
तुम जितना समझते हो
तुम ही लोग ही भीड़ में रहकर भी
तनहा तनहा लगते हो
भरे हुए जब काफिले बादलों के जाते हैं
झप्पियाँ डाल के मिल कर जाते हैं मुझसे
दरिया भी उतरते हैं तो पांव छू के विदा होते हैं
मौसम मेहमान है आते हैं तो महीनों रह कर जाते हैं
अज़ल अज़ल के रिश्ते निभाते हैं
तुम लोगों की उम्रें देखता हूँ
देखता हूँ कितनी छोटी छोटी उम्रों में तुम
मिलते और बिछड़ते हो
ख्व्याइशें और उम्मीदें भी
बस छोटी छोटी उम्रों जितनी
इसीलिए क्या
तुम लोगों के कद इतने छोटे रह जाते हैं
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