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तुम्हें पता है
कलर नोट पर
न जाने कितनी ही
नज़्में मेरी बहुत
उदास पड़ी है
और कभी जब
उनसे मिलने
बैठ गयी मैं
सच कहती हूँ
मुझसे रो रो
खूब लड़ी हैं
जान रहे हो
ऐसा क्यों है?
यूँ कि मैंने उन नज़्मों में
अब तक तुमको नहीं पिरोया
और तुम्हारी यादों से
अब तक उनको नहीं भिगोया।
वो भी मेरी ही तरह
दिन रात अकेले काट रही हैं
और अधूरी मेरी नज़्में
खुद को पूरा करने की ज़िद
मुझसे लड़ कर बांट रही है।
कैसे पूरा कर दूं उनको
जब मैं खुद ही
आधी आधी
आस लगाए
बस चंदा को ताक रही हूँ
तू दिख जाए इसी आस में
गलियारे में झांक रही हूँ।
तुम आओ तो अक्षर अक्षर
मैं बटोर कर शब्द बनाऊं
और चुनूँ कुछ शब्द की जिनसे
नज़्मों को जज़्बात पिन्हा कर
दुल्हन जैसे खूब सजाऊँ।
कब आओगे
कुछ तो बोलो
आंखों में खुशियों के आँसू
कब लाओगे,
कुछ तो बोलो।
मौन तुम्हारा अविरल होकर
बोल रहा है
मुझे अधूरा रहना होगा
यह रहस्य वो खोल रहा है।
पर नज़्मों की क्या गलती है
बात यही मुझको खलती है
उन नज़्मों को पता नहीं है
उन्हें अधूरा जीना होगा,
मेरे खालीपन को उनको
बार बार ही पीना होगा,
और अधूरा रह कर उनको
कलर नोट पर
मेरी तरह मौन समेटे
पूरा जीवन जीना होगा।