
श्रीकृष्ण कहते हैं, "जान लो कि प्रकृति और पुरुष दोनों अनादि हैं। तीनों गुण और शरीर में होने वाले विकार (विकास या परिवर्तन) प्रकृति से पैदा होते हैं (13.20)। प्रकृति कारण और प्रभाव के लिए जिम्मेदार है, पुरुष सुख और दुःख के अनुभव के लिए जिम्मेदार है (13.21)। प्रकृति के प्रभाव में, पुरुष गुणों का अनुभव करता रहता है। गुणों के प्रति आसक्ति ही विभिन्न योनियों में जन्म का कारण है" (13.22)।
परिवर्तन प्रकृति का नियम है जहां आज की स्थितियां कल की परिस्थितियों से भिन्न होती हैं। जबकि परिवर्तन नियम है, हम परिवर्तन के प्रति अपने प्रतिरोध के कारण दुःख पाते हैं क्योंकि इसके लिए स्वयं को बदलना पड़ता है। अतीत के बोझ और भविष्य से अपेक्षाओं के बिना वर्तमान क्षण में जीना ही इस प्रतिरोध से पार पाने का तरीका है।
प्रकृति 'कारण और प्रभाव' के लिए जिम्मेदार है जिसे आमतौर पर भौतिक नियम कहा जाता है। पुरुष उन्हें सुख और दुःख के रूप में अनुभव करता है। जब पत्थर को ऊपर फेंकते हैं, तो वह नीचे आता है और जब बीज बोते हैं, तो अंकुरण होता है और यह सूची अनंत है। जब फूल खिलते हैं तो हमारी व्याख्या ही उन्हें सुंदर बनाती है। इसी प्रकार, मृत्यु या विनाश के दृश्य की व्याख्या दर्दनाक के रूप में की जाती है। अपनी-अपनी मनोस्थिति के आधार पर, एक ही स्थिति के लिए अलग-अलग व्यक्तियों की व्याख्याएं अलग-अलग होती हैं। परिणामस्वरूप, व्यक्ति सुख और दुःख; मिजाज में बदलाव और दोषारोपण के खेल से गुजरता है। श्रीकृष्ण ने पहले ऐसी व्याख्याओं को क्षणिक (अनित्य) बताया था और हमें उनको सहन करने को सीखने की सलाह दी थी (2.14)।
सत्त्व, तमो और रजो गुण प्रकृति से उत्पन्न होते हैं। उनके प्रभाव में पुरुष विभिन्न समयों पर अलग-अलग अनुपातों में इन गुणों का अनुभव करता रहता है। यह अनुभव या भ्रम हमें विश्वास दिलाता है कि हम कर्ता हैं। हमारा आपसी बर्ताव गुणों के बीच परस्पर क्रिया का परिणाम हैं। इस सन्दर्भ में श्रीकृष्ण हमें बार-बार इन गुणों से परे जाकर गुणातीत बनने की सलाह देते हैं