द्रोणाचार्य धनुर्विद्या में निपुण थे जो अपने शिष्य अर्जुन को धनुर्विद्या सिखा रहे थे। एक और छात्र एकलव्य भी द्रोणाचार्य से सीखना चाहता था, जिन्होंने उसे शिक्षा देने से इनकार कर दिया। एकलव्य ने वापस लौटकर द्रोणाचार्य की एक मूर्ति स्थापित की और मूर्ति को वास्तविक गुरु मानकर धनुर्विद्या सीखी। कहा जाता है कि वह अर्जुन से भी श्रेष्ठ धनुर्धर निकला। यह कहानी गुरु-शिष्य के रिश्ते और ज्ञान प्राप्ति के क्षेत्र में कई पहलुओं को दर्शाती है।
यह कहानी हमें यह समझने में मदद करती है जब श्रीकृष्ण कहते हैं,"कुछ लोग ध्यान द्वारा अपने हृदय में बैठे परमात्मा को देखते हैं और कुछ लोग ज्ञानयोग द्वारा, जबकि कुछ अन्य लोग कर्मयोग द्वारा देखने का प्रयत्न करते हैं (13.25)। कुछ अन्य लोग ऐसे भी होते हैं जो आध्यात्मिक मार्ग से अनभिज्ञ होते हैं लेकिन वे अन्य संत पुरुषों से श्रवण कर भगवान की आराधना करने लगते हैं। वे भी धीरे-धीरे जन्म और मृत्यु के सागर को पार कर लेते हैं" (13.26)। एकलव्य की तरह हम भी परमात्मा को अपने भीतर प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करते हैं या अर्जुन की तरह संतों की वाणी सुनकर अनुभव कर सकते हैं।
आध्यात्मिक यात्रा में कोई एक मार्ग नहीं है। किसी के व्यक्तित्व के आधार पर, यह व्यक्ति-दर-व्यक्ति अलग होता है। हृदय उन्मुख व्यक्ति के लिए, यह भक्ति या समर्पण के माध्यम से होता है। बुद्धि उन्मुख व्यक्ति के लिए यह जागरूकता (सांख्य) का मार्ग है। मन उन्मुख व्यक्ति के लिए यह कर्म का मार्ग है। हालांकि इन मार्गों के दृष्टिकोण, अनुभव और भाषा काफी भिन्न होती हैं, लेकिन ये सभी परमात्मा तक ले जाते हैं। भगवद गीता में श्रीकृष्ण इन सभी मार्गों के बारे में बताते हैं और हमारे व्यक्तित्व के आधार पर मार्ग निर्धारित होता है।
'संतों की वाणी सुनने के माध्यम से बोध' का मार्ग कुछ प्रश्न पैदा करता है कि संत या गुरु कौन हैं और उनकी पहचान कैसे की जाए। इससे पहले श्रीकृष्ण ने हमें साष्टांग प्रणाम (विनम्रता), प्रश्न पूछना (खुद के हर पहलू पर) और सेवा विकसित करने की सलाह दी थी (3.34)। एकलव्य ने इन गुणों को विकसित किया और सीखना अपने आप ही हुआ क्योंकि सृष्टि ही गुरु बन गया।
వ్యక్తీకరించబడిన అంటే భౌతిక ప్రపంచంలో, పరివర్తనం శాశ్వతము. అవ్యక్తమైన లేదా ఆత్మ ఎల్లప్పుడూ మార్పు లేకుండాఉంటుంది. ఈ రెండు రకాల వ్యవస్థల మధ్య సమన్వయం, సమతుల్యం సాధించటానికి ఓ పద్ధతి అవసరం. ఈ పధ్ధతి ఓ స్థిరమైన కేంద్రంను ఆధారం చేసుకుని చక్రం తిరగడానికి బాల్ బేరింగ్ వ్యవస్థ తీసుకొనివచ్చే సమన్వయము లాంటిది. ఈ పద్ధతికి మరో ఉదాహరణ ఏమిటంటే కారులో ఉండే గేరు బాక్స్. అది కారు, ఇంజనుల వేర్వేరు వేగాల మధ్య సమన్వయము తెచ్చి ప్రయాణాన్ని సాధ్యము చేస్తుంది. నిరంతరం మారేబాహ్య పరిస్థితులు మరియు నిశ్చలమైన ఆత్మ మధ్య ఇంద్రియాలు, మనస్సు, బుద్ధి సమన్వయము తీసుకువస్తాయి. ఇంద్రియ వస్తువుల కంటే ఇంద్రియాలు శ్రేష్ఠమైనవని, ఇంద్రియాల కంటే మనస్సు శ్రేష్ఠమైనది, మనస్సు కంటే బుద్ధి శ్రేష్ఠమైనది, బుద్ధి కంటే కూడా ఆత్మ శ్రేష్ఠమైనదని శ్రీకృష్ణుడు వీటి మధ్య ఒక ఆరోహణ క్రమాన్ని వివరిస్తారు (3.42).
ఇంద్రియాల యొక్క భౌతిక భాగములు భౌతిక ప్రపంచంలోని మార్పులకు యాంత్రికంగా ప్రతిస్పందిస్తూ ఉంటాయి. మనస్సు అనేది జ్ఞాపకశక్తితోపాటు ఇంద్రియాల యొక్క నియంత్రక భాగముల కలయిక. మనలను సురక్షితంగా ఉంచడానికి ఇంద్రియాల యొక్క భౌతిక భాగం ద్వారా వచ్చే స్పందనలనుమన మనస్సు పరిశీలిస్తూ ఉంటుంది. ఇక్కడ మన మనస్సును ఒక వైపు ఇంద్రియ స్పందనలు రెండవ వైపు బుద్ధి నియంత్రిస్తూ ఉంటాయి. ఇంద్రియ స్పందనలు నియంత్రిస్తూ ఉంటే అది ఒకబాధాకరమైన ప్రతిచర్య జీవితం అవుతుంది. మన బుద్ధి మన మనస్సును నియంత్రిస్తూ ఉంటే అది అవగాహనతో కూడిన ఆనందమయ జీవితం అవుతుంది.
అందుకే మనస్సును స్వయంలో స్థిరపరచడానికి బుద్ధిని ఉపయోగించే అభ్యాసాన్ని ప్రారంభించమని శ్రీకృష్ణుడు చెప్పారు (6.25). ఈ అభ్యాసాన్ని దృఢ నిశ్చయముతో మరియు ఉత్సాహంతోచేయమని ప్రోత్సహిస్తున్నారు (6.23). సమకాలీన సాహిత్యం కూడా ఏదైనా నైపుణ్యం సాధించడానికి పది వేల గంటల సాధన అవసరమని సూచిస్తుంది.
ఈ ప్రక్రియలో, మనం సంకల్పం కూడా వదిలివేసి ఇంద్రియాలను నిగ్రహించాలి (6.24). ఇంద్రియాలను నిగ్రహించడం అనేది మనకు నచ్చిన ఇంద్రియ స్పందనలను పొందాలనే కోరికను నిరోధించడం తప్ప మరొకటి కాదు. ఒకసారి మనము ఇంద్రియాలకు అతీతమైన పరమానందాన్ని పొందితే ఎటువంటిదుఃఖాలు కూడా మనలను చలింపజేయవు అని శ్రీకృష్ణుడు హామీ ఇచ్చారు (6.22).
श्रीकृष्ण कहते हैं, "इस शरीर में स्थित पुरुष को साक्षी (दृष्टा),अनुमन्ता, भर्ता, भोक्ता, महेश्वर और परमात्मा भी कहा जाता है'' (13.23)। इस जटिलता को समझने के लिए आकाश सबसे अच्छा उदाहरण है। इसे इसके स्वरूप के आधार पर अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है जैसे एक कमरा, एक घर, एक बर्तन आदि। मूलतः, आकाश एक है और बाकी इसकी अभिव्यक्तियां हैं।
श्रीकृष्ण आश्वासन देते हैं, "वे जो परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति के सत्य और तीनों गुणों की अन्तःक्रिया को समझ लेते हैं वे पुनः जन्म नहीं लेते। उनकी वर्तमान स्थिति चाहे जैसी भी हो वे मुक्त हो जाते हैं" (13.24)। प्रकृति में सबकुछ गुणों के कारण घटित होता है और पुरुष उन्हें दुःख और सुख के रूप में अनुभव करता है। इस बात की समझ हमें सुख और दुःख के बीच झूलने की दुर्गति से मुक्ति प्रदान करती है।
श्रीकृष्ण ने पहले मुक्ति के बारे में एक अलग दृष्टिकोण से समझाया कि सभी स्थितियों में गुणों के द्वारा ही कर्म किए जाते हैं; जो अहंकार से मोहित हो जाता है वह सोचता है 'मैं कर्ता हूँ' (3.27)। जो यह जानता है कि गुणों के साथ गुण परस्पर क्रिया करते हैं, वह मुक्त हो जाता है (3.28)।
मुक्ति का मतलब कुछ भी करने की स्वतंत्रता है। इससे यह तर्क सामने आता है कि यदि पाप या अपराध कहे जाने वाले कार्यों की अनुमति दी जाती है तो समाज कैसे जीवित रह सकता है। परन्तु इस तर्क में कमजोरी है कि यह घृणा को दबाकर पोषित रखने की अनुमति देता है। यह स्थिति तबतक रहेगी जबतक दबाकर रखी गई घृणा को व्यक्त न किया जाए। लेकिन श्रीकृष्ण कहते हैं कि उस घृणा को ही त्याग दो और अस्तित्व के साथ सामंजस्य अपने आप हो जाएगा।
मानव शरीर एक चमत्कार है। हमारे शरीर में लगभग तीस ट्रिलियन कोशिकाएं और अन्य तीस ट्रिलियन बैक्टीरिया हैं जो आपस में तालमेल बनाए रखते हैं। सामंजस्य का सबसे अच्छा उदाहरण मानव शरीर है। इस तालमेल को बनाए रखने के लिए हमें कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता है। ऐसा शरीर की कोशिकाओं व बैक्टीरिया आदि के एकत्व के कारण होता है। मुक्ति और कुछ नहीं बल्कि चारों ओर एकत्व की अनुभूति है।
श्रीकृष्ण कहते हैं, "जान लो कि प्रकृति और पुरुष दोनों अनादि हैं। तीनों गुण और शरीर में होने वाले विकार (विकास या परिवर्तन) प्रकृति से पैदा होते हैं (13.20)। प्रकृति कारण और प्रभाव के लिए जिम्मेदार है, पुरुष सुख और दुःख के अनुभव के लिए जिम्मेदार है (13.21)। प्रकृति के प्रभाव में, पुरुष गुणों का अनुभव करता रहता है। गुणों के प्रति आसक्ति ही विभिन्न योनियों में जन्म का कारण है" (13.22)।
परिवर्तन प्रकृति का नियम है जहां आज की स्थितियां कल की परिस्थितियों से भिन्न होती हैं। जबकि परिवर्तन नियम है, हम परिवर्तन के प्रति अपने प्रतिरोध के कारण दुःख पाते हैं क्योंकि इसके लिए स्वयं को बदलना पड़ता है। अतीत के बोझ और भविष्य से अपेक्षाओं के बिना वर्तमान क्षण में जीना ही इस प्रतिरोध से पार पाने का तरीका है।
प्रकृति 'कारण और प्रभाव' के लिए जिम्मेदार है जिसे आमतौर पर भौतिक नियम कहा जाता है। पुरुष उन्हें सुख और दुःख के रूप में अनुभव करता है। जब पत्थर को ऊपर फेंकते हैं, तो वह नीचे आता है और जब बीज बोते हैं, तो अंकुरण होता है और यह सूची अनंत है। जब फूल खिलते हैं तो हमारी व्याख्या ही उन्हें सुंदर बनाती है। इसी प्रकार, मृत्यु या विनाश के दृश्य की व्याख्या दर्दनाक के रूप में की जाती है। अपनी-अपनी मनोस्थिति के आधार पर, एक ही स्थिति के लिए अलग-अलग व्यक्तियों की व्याख्याएं अलग-अलग होती हैं। परिणामस्वरूप, व्यक्ति सुख और दुःख; मिजाज में बदलाव और दोषारोपण के खेल से गुजरता है। श्रीकृष्ण ने पहले ऐसी व्याख्याओं को क्षणिक (अनित्य) बताया था और हमें उनको सहन करने को सीखने की सलाह दी थी (2.14)।
सत्त्व, तमो और रजो गुण प्रकृति से उत्पन्न होते हैं। उनके प्रभाव में पुरुष विभिन्न समयों पर अलग-अलग अनुपातों में इन गुणों का अनुभव करता रहता है। यह अनुभव या भ्रम हमें विश्वास दिलाता है कि हम कर्ता हैं। हमारा आपसी बर्ताव गुणों के बीच परस्पर क्रिया का परिणाम हैं। इस सन्दर्भ में श्रीकृष्ण हमें बार-बार इन गुणों से परे जाकर गुणातीत बनने की सलाह देते हैं
మన మెదడు ఓక అద్భుతమైన అవయవం. దానికున్న ఓక ముఖ్యమైన లక్షణం ఏమిటంటే దానికి నొప్పి ఏమిటో తెలీదు ఎందుకంటే నొప్పిని గురించి మెదడుకు సూచనలు పంపే నోసిసెప్టార్లు మెదడులో ఉండవు. న్యూరో సర్జన్లు ఈ లక్షణాన్ని ఉపయోగించి మనిషి మేలుకొని ఉన్నప్పుడు మెదడు యొక్క శస్త్రచికిత్స చేస్తారు.
శారీరక నొప్పులు మరియు ఆహ్లాదాలు మన మెదడు యొక్క తటస్థ స్థితితో పోల్చడం వలన కలిగే అనుభవాలు. అలాగేమానసిక భావాలకు కూడా ఇదే వర్తిస్తుంది. మనందరిలో ఒక తటస్థ బిందువు ఉంటుంది. ఈ తటస్థ బిందువుతో పోలిక సుఖము, దుఃఖముల యొక్క ధ్రువణాలకు దారి తీస్తుంది. ఈ నేపథ్యం శ్రీకృష్ణుడు చెప్పినది అర్థం చేసుకోవడానికి మనకు సహాయపడుతుంది, "ధ్యానయోగ సాధనం ద్వారానిగ్రహింపబడిన మనస్సు స్థిరమైనప్పుడు యోగి అంతరాత్మను దర్శనం చేసుకొని ఆత్మసంతృప్తి చెందుతాడు" (6.20).
స్థిరపడటం అనేది కీలకం. అంటే చంచలమైన లేదా ఊగిసలాడే మనస్సును స్థిరపరచడం. దానిని సాధించేందుకుశ్రీకృష్ణుడు నిగ్రహమును పాటించాలని సూచిస్తారు. నిగ్రహము అంటే మన భావాలను అణచివేయడం లేదా వాటి వ్యక్తీకరణ కాదు. ఇది అవగాహనతో మనలో ఉత్పన్నమయ్యే ఈ భావాలనుసాక్షి లాగా చూస్తూ ఉండడం. మనం ఎదుర్కొన్న గత పరిస్థితులను విశ్లేషించడం ద్వారా ఈ నిగ్రహాన్ని సులభంగా సాధించవచ్చు.
ఒకసారి మనం నిగ్రహం అనే కళలో ప్రావీణ్యం పొందిన తర్వాత, ఆ తటస్థ బిందువు అంటే అత్యున్నత ఆనందాన్ని చేరుకోవడానికి సుఖము, దుఃఖము యొక్క ధ్రువణాలను అధిగమిస్తాము. ఈ విషయంలో శ్రీకృష్ణుడు ఇలా అంటారు,"ఇంద్రియాతీతమైన మరియు పవిత్ర సూక్ష్మ బుద్ధి ద్వారా మాత్రమే గ్రాహ్యమైన బ్రహ్మానందమును అనుభవించుచు దానియుందే స్థితుడైయున్న యోగి వాస్తవికతనుండి ఏమాత్రము విచలితుడు కానేకాడు" (6.21).
పరమానందం ఇంద్రియాలకు అతీతమైనది. ఈ స్థితిలో, ఇతరుల నుండి ప్రశంసలు లేదా రుచికరమైన ఆహారం మొదలైనవాటి అవసరం ఉండదు. మనమందరం ఈ ఆనందాన్ని ధ్యానంలో లేదా నిష్కామ కర్మలు చేసిన క్షణాలలో పొందుతాము. మన భాద్యత ఏమిటంటే ఈ క్షణాలను గుర్తించి మన అన్ని జీవిత క్షణాలలో విస్తరింపజేయడం.
श्रीकृष्ण कहते हैं, "परमात्मा सबका पालनकर्ता, संहारक और सभी जीवों का जनक है। वे अविभाज्य हैं, फिर भी सभी जीवित प्राणियों में विभाजित प्रतीत होते हैं (13.17)। वे समस्त प्रकाशमयी पदार्थों के प्रकाश स्रोत हैं, वे सभी प्रकार की अज्ञानता के अंधकार से परे हैं। वे ज्ञान हैं, वे ज्ञान का विषय हैं और ज्ञान का लक्ष्य हैं। वे सभी जीवों के हृदय में निवास करते हैं (13.18)। इसे जानकर मेरे भक्त मेरी दिव्य प्रकृति को प्राप्त होते हैं" (13.19)।
श्रीकृष्ण ने पहले कहा था कि जो योग में सिद्धि प्राप्त करता है वह ज्ञान को स्वयं में ही पाता है (4.38)। इसी विषय का श्रीकृष्ण "वह सभी के दिलों में वास करते हैं" के रूप में उल्लेख करते हैं। श्रद्धावान और जितेंद्रिय ज्ञान पाकर परम शांति प्राप्त करते हैं (4.39)। श्रद्धा से रहित अज्ञानी नष्ट हो जाता है और उसे इस लोक या परलोक में कोई सुख नहीं मिलता (4.40)।
परमात्मा सभी जीवित प्राणियों में विभाजित प्रतीत होते हैं, जबकि वे अविभाज्य हैं। अस्तित्व के स्तर पर इस तत्त्व को समझने में असमर्थता हमें तकलीफ देती है। यह कहावती हाथी और पांच अंधे लोगों की तरह है जो हाथी के केवल एक हिस्से को ही समझ पाते हैं जिससे मतभेद और विवाद पैदा होते हैं।
वर्तमान वैज्ञानिक समझ भी पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त क्वांटम क्षेत्र के संदर्भ में इस ‘अविभाज्यता’ की ओर इशारा करती है। पदार्थ या कण क्वांटम क्षेत्र में उत्तेजना के अलावा और कुछ नहीं हैं।
इस 'अविभाज्यता' या एकता को विकसित करने का एक आसान तरीका यह है कि बिना कोई धारणा बनाए दूसरों के दृष्टिकोण को समझना शुरू करें और शंका होने पर प्रश्न करें। जब कोई माता या पिता बनता है तब शिशु की आवश्यकताओं को समझने के लिए या जब कोई कार्यस्थल में उच्च पदों पर पहुंचता है तब यह स्वाभाविक रूप से आता है। कुंजी यह है कि इस सीख को जीवन के हर पहलू में विस्तारित करना है।
विपरीतों को एक में मिलाना ही परमात्मा को पाने की कुंजी है क्योंकि वह दोनों ही हैं। यह कुछ और नहीं बल्कि ‘मन रहित’ होने की स्थिति है जहाँ मन विभाजन करना बंद कर देता है।
ఆధ్యాత్మిక మార్గం గురించి ఒక సాధారణ భావన ఏమిటంటే దానిని అనుసరించడం కష్టతరమైనది. అందువలననే, చిన్న ప్రయత్నాల ద్వారా కర్మయోగంలో పెద్ద లాభాలను పొందగలమని శ్రీకృష్ణుడు ఇంతకుముందు హామీ ఇచ్చారు(2.40). దీనిని మరింత సులభతరం చేస్తూ శ్రీకృష్ణుడు ఈ విధముగా చెప్పారు, "ఆహారవిహారాదులయందును, కర్మాచరణముల యందును, జాగ్రత్స్వప్నాదుల యందును, యథాయోగ్యముగా ప్రవర్తించు వానికి దుఃఖనాశకమగు ధ్యాన యోగము సిద్ధించును" (6.17). యోగము లేదా ఆధ్యాత్మిక మార్గం అంటే ఆకలితో ఉన్నప్పుడు తినడం; పని చేయడానికి సమయం వచ్చినప్పుడు పని చేయడం; నిద్రించవలసిన సమయంలో నిద్రపోవడం మరియు అలిసిపోయినప్పుడు విశ్రాంతి తీసుకోవడం అంత సులభం. ఇంతకు మించినది ఏదైనా మనకు మరియు ఇతరులకు మనం చెప్పే కథలు మాత్రమే.
వృద్ధుల కంటే శిశువుకు ఎక్కువ నిద్ర అవసరం ఉంటుంది. ఆహారానికి సంబంధించి మన అవసరాలు రోజులోని శారీరక శ్రమ ఆధారంగా మారవచ్చు. శ్లోకములో ఉల్లేఖించబడిన ‘యథాయోగ్యము' అంటే వర్తమానంలో అవగాహనతో జీవించడము అని సూచిస్తుంది. దీనినే అంతకుముందు కర్తవ్య కర్మలు (6.1) లేదా శాస్త్రవిహిత కర్మలు (3.8) గా సూచించబడింది.
దీనికి భిన్నంగా మన మెదడు విషయాలను ఆధారంగాతీసుకొని విస్తృతంగా ఆలోచించి దానికి మన ఊహాజనిత సామర్ద్యాన్ని జోడించి ఆ విషయాల చుట్టూ సంక్లిష్టమైన కథనాలు అల్లుతుంది. మనకు మనం చెప్పుకునే ఈ కథలే మనలో ఒకరినినాయకుడిగానూ మరొకరిని ప్రతి నాయకుడుగానూ, కొన్ని పరిస్థితులను ఆహ్లాదమైనవిగానూ, మరికొన్నింటిని కష్టదాయక మైనవిగానూ చూపిస్తాయి. ఈ కథనాలే మన మాటలను,ప్రవర్తనను నియంత్రిస్తాయి. అందుకే శ్రీకృష్ణుడు ఇటువంటి కథనాలు చెప్పే మనస్సును నియంత్రణలో పెట్టుకోవాలని ఉపదేశిస్తున్నారు. మనస్సును అదుపులో పెట్టుకోవటానికి అన్ని రకాల కోరికలను త్యజిస్తే పరమాత్మతో లీనం అవుతామనిబోధిస్తున్నారు (6.18).
"గాలి లేని చోట దీపం ఎలా నిశ్చలముగా ఉండునో అలాగే యోగికి వశమైయున్న చిత్తము పరమాత్మ ధ్యానమున నిమగ్నమైయున్నప్పుడు నిర్వికారముగా, నిశ్చలముగానుండును" అని శ్రీకృష్ణుడు చెప్తున్నారు (6.19). శ్రీకృష్ణుడు ఇంతకూముందు తాబేలు (2.58); నదులు మరియు మహాసముద్రం యొక్క (2.70) ఉదాహరణలను ఇచ్చారు. ఇక్కడ నదులు సముద్రంలోకి ప్రవేశించిన తర్వాత వాటి ఉనికిని కోల్పోతాయి. అనేక నదులు ప్రవేశించిన తర్వాత కూడా సముద్రం ప్రశాంతంగా ఉంటుంది. అదేవిధంగా,స్థిరంగా ఉన్న యోగి మనస్సులో కోరికలు ప్రవేశించినప్పుడు వాటి ఉనికిని కోల్పోతాయి.
एक बार एक पिता अपने दस साल के बेटे को खेल के मैदान में ले गया। उसने एक गेंद फेंकी और खेल का नियम यह था कि लड़के को गेंद वापस लाकर अपने पिता को देना है। मैदान खिलौनों से भरा था। रास्ते में, लड़के का ध्यान एक खिलौने की तरफ आकर्षित होता है और वह उसके साथ खेलना शुरू कर देता है। तब उसके पिता उसे गेंद के बारे में याद दिलाने के लिए आवाज लगाते हैं। वह खिलौने को छोड़कर फिर से गेंद के पीछे दौड़ना शुरू कर देता है।
खेल के मैदान में अन्य बच्चे भी थे। इस बार लड़के को एक और आकर्षक खिलौना मिल जाता है और वह उससे खेलना शुरू कर देता है। तभी एक ताकतवर बच्चा आता है और उससे खिलौना छीन लेता है। इस पर लड़का रोने लगता है। अगली बार, लड़का खुद ही दूसरे छोटे बच्चे से खिलौना छीन लेता है। पूरे खेल में खिलौनों के लिए बच्चों के बीच झगड़े होते रहते हैं। इस दौरान पिता बेटे के ठीक पीछे खड़ा रहता है। लेकिन उस लड़के के लिए जो खिलौनों में खोया हुआ है, उसके पिता बहुत निकट होकर भी बहुत दूर हैं।
यह कहानी हमें यह समझने में मदद करती है जब श्रीकृष्ण कहते हैं,"भगवान सभी के भीतर एवं बाहर स्थित हैं चाहे वे चर हों या अचर। वे सूक्ष्म हैं और इसलिए वे हमारी समझ से परे हैं। वे अत्यंत दूर हैं लेकिन वे सबके निकट भी हैं" (13.16)। उपरोक्त कहानी में पिता की तरह, वह (श्रीकृष्ण) हमारे जीवन की पूरी यात्रा में ठीक हमारे पीछे हैं और हमें बस पीछे मुड़कर देखना है। इसके लिए जब हम दुनियावी आकर्षणों में खो जाते हैं, प्रभु विभिन्न अनुभव भेजकर हमारी सहायता करते हैं। हमें याद दिलाने के लिए वह कठिन परिस्थितियां देते हैं जैसे पिता लड़के पर चिल्लाते हैं।
जब श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह समझ के बाहर हैं, तो इसका मतलब यह है कि हम हमारी इंद्रियों की सीमाओं के कारण उनको समझ नहीं पाते हैं। वे अनुभवों के माध्यम से प्राप्त हो सकते हैं लेकिन व्याख्या के माध्यम से नहीं। किसी ऐसे व्यक्ति के लिए जिसने कभी नमक या चीनी नहीं चखा,कोई भी व्याख्या उनके स्वाद को समझने में मदद नहीं करेगी। उनके स्वाद को समझने का एकमात्र तरीका उनको चखना है यानी जागरूकता के साथ उनका अनुभव करना है।
जीवित रहने के लिए जिज्ञासा आवश्यक है। वर्त्तमान के संदर्भ में,अपने व्यावसायिक और व्यक्तिगत जीवन में अद्यतन (up-to-date)रहने की उम्मीद की जाती है। अर्जुन प्रश्न करते हैं कि क्या जानने योग्य है (13.1)। इसके बारे में, श्रीकृष्ण ने पहले उल्लेख किया था कि "जब 'उसे'जान लेते हैं तो जानने के लिए कुछ भी नहीं बचता" (7.2)।
श्रीकृष्ण कहते हैं, "जो जाननेयोग्य है तथा जिसको जानकर मनुष्य परमानन्द को प्राप्त होता है उसको भलीभांति कहूंगा। वह अनादिवाला परमब्रह्म न सत् ही कहा जाता है न असत् ही (13.13)। वह सब ओर हाथ-पैर वाला, सब ओर नेत्र, सिर और मुख वाला तथा सब ओर कान वाला है; क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है (13.14)। वह सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को जानने वाला है, परन्तु वास्तव में सब इन्द्रियों से रहित है तथा आसक्ति रहित होने पर भी सबका धारण-पोषण करने वाला और निर्गुण होने पर भी गुणों को भोगनेवाला है" (13.15)।
मृत्यु का भय हमारे सभी भयों का आधार है। प्रतिष्ठा या संपत्ति की हानि भी एक प्रकार की मृत्यु है। श्रीकृष्ण आश्वासन देते हैं कि हम परम आनंद की अवस्था पाते हैं क्योंकि एक बार 'उसे' जान लेने के पश्चात हम सभी प्रकार के भय से मुक्त हो जाते हैं।
इससे पहले, श्रीकृष्ण ने 'सत्' को शाश्वत बताया और 'असत्' को वह जो अतीत में नहीं था और जो भविष्य में नहीं होगा (2.16); और उनके बीच अंतर करने को सीखने के लिए कहा। इस जटिलता को समझने के लिए अक्सर रस्सी-सांप समरूपता का हवाला दिया जाता है। अब श्रीकृष्ण कहते हैं, वह 'सत्' और 'असत्' दोनों हैं। पहला कदम इन दोनों को अलग करने की क्षमता को विकसित करना है। यह एहसास करना है कि वह दोनों ही हैं। इसी प्रकार वह सगुण (रूप) और निर्गुण (निराकार) दोनों है। सर्वत्र आँख और कान होने के कारण वे सबकुछ अनुभव कर सकते हैं। सर्वत्र हाथ होने के कारण उनके मददगार हाथ उन सभी लोगों के लिए उपलब्ध हैं जो श्रद्धा और भक्ति के साथ उनकी शरण में आते हैं।
हमारा दिमाग विभाजन करने के लिए प्रशिक्षित है जबकि विरोधाभासों में एकता ही 'जानने योग्य' है। यह सभी रंगों के मिश्रण से सफेद रंग का बनना या प्रकाश की तरंग-कण द्वैतता के जैसा है।
శ్రీకృష్ణుడు, మీరు మీ స్వంత మిత్రుడు లేదా మీ స్వంతశత్రువు అని చెప్పారు (6.6). మన స్వంత స్నేహితుడిగా మారడానికి ఇంద్రియాలను నియంత్రించడం ద్వారా (6.8) సుఖ-దుఃఖ భావాల పట్ల (6.7), బంగారు-రాయి వంటి వస్తువుల పట్ల (6.8) మరియు స్నేహితులు-శత్రువుల వంటి వ్యక్తుల పట్ల (6.9),సమానత్వ భావముతో ఉండాలని శ్రీకృష్ణుడు సూచించారు. దీనితోపాటు ధ్యాన మార్గమును కూడా అనుసరించవచ్చని శ్రీకృష్ణుడు చెప్పారు (6.10-6.15).
శ్రీకృష్ణుడు సౌకర్యాల మీద ఆశ లేకుండా ఏకాంతంగా ఉంటూ (6.10), అతి తక్కువగా లేదా ఎత్తుగా లేని పరిశుభ్రమైన ప్రదేశంలోకూర్చుని (6.11), మనస్సును నియంత్రణలో ఉంచుకొని, వెన్నెముక, మెడను నిటారుగా ఉంచి, చుట్టూ చూడకుండా (6.12-6.13), నిశ్శబ్దంగా, భయం లేకుండా, ఏకాగ్రతతో ఉండాలి అని చెప్పారు (6.14). నిరంతరం తన అంతరాత్మతో ఐక్యతను కోరుకోవడం ద్వారా ఒక వ్యక్తి పరమ శాంతిని పొందుతాడని శ్రీకృష్ణుడు చెప్పారు (6.15).
ఇంద్రియ, ఇంద్రియ విషయముల సంయోగము తో కలిగేతాకిడి వలన మనకు సమత్వాన్ని సాధించడం కష్టమవుతుంది. అందువలన ఏకాంతం తాత్కాలిక ఉపశమనం కలిగిస్తుంది. మనం శారీరకంగా ఒంటరిగా ఉన్నప్పటికీ మనము చేసే పనులను, పరిస్థితులను, వ్యక్తులను మానసికంగా మనతో పాటుధ్యానానికి తీసుకువెళ్లే అవకాశం ఉంది. మనం వారిని మానసికముగా కూడా వదిలిపెట్టి ఏకాంతంగా ఉండగలగాలని ఈ శ్లోకం (6.10) పేర్కొంటుంది. చివరికి, ఇది యుద్ధభూమిలో అర్జునుడు మానసిక ఏకాంతాన్ని సాధించినట్లే.
ధ్యానం చేసే ముందు మనము భౌతిక సౌకర్యాలు, ఆస్తులను దానం చేయమని కాదు. వాటితో మన అంతర్లీన అనుబంధాన్ని త్యజించి అవసరమైనప్పుడు వాటిని ఉపయోగకరమైన వస్తువులుగా వాడుకోవడం తప్ప మరేమి కాదు. ఇది వాటిని 'నేను', 'నాది' లో భాగం చేయకపోవడమే.
శ్రీకృష్ణుడు భయాన్ని తొలగించుకోమని సలహా ఇస్తున్నారు. మన ప్రాథమిక భయం ఏమిటంటే వస్తువులు లేదా వ్యక్తులను కోల్పోతామనే భయం. ఇది 'నేను', 'నాది' యొక్క పాక్షికమరణమే తప్ప మరొకటి కాదు. మరోవైపు, ధ్యానంలో మనము ఆలోచనలపై, వస్తువులపై యాజమాన్యం యొక్క భావాన్ని వదిలిపెట్టి వ్యక్తుల నుండి దూరంగా, ఒంటరిగా ఉండాలి. అందువల్ల, మోక్షం అనే శాశ్వతమైన ధ్యాన స్థితిని పొందే మార్గంలో భయం గురించి అవగాహన ఉండాలనిశ్రీకృష్ణుడు చెప్పారు.
శ్రీకృష్ణుడు బంగారం, రాయి మరియు మట్టిని సమదృష్టితో చూడమని చెప్పిన తర్వాత (6.8), అయన ఈ సమత్వాన్ని గురించి మరింత విస్తారంగా ఇలా చెప్పారు, "సుహృదులయందును, మిత్రులయందును, శత్రువులయందును, ఉదాసీనులయందును, మధ్యస్థుల యందును, ద్వేషింపదగినవారి యందును, బంధువుల యందును, ధర్మాత్ములయందును, పాపులయందును, సమబుద్ధి కలిగియుండువాడు మిక్కిలి శ్రేష్ఠుడు" (6.9).
శ్రీకృష్ణుడు బాహ్య విషయాలను, పరిస్థితులను సమదృష్టితో చూడమని చెప్పారు. ఆ తర్వాత మన జీవితాల్లోని వ్యక్తుల గురించి ఉల్లేఖిస్తూ స్నేహితులు మరియు శత్రువులు; ధర్మాత్ములు మరియు పాపులు; అపరిచితులు మరియు బంధువులను సమానంగా పరిగణించమని చెప్పారు. నిశితంగా పరిశీలిస్తే ఇవన్నీ మనం మన చుట్టూ ఉన్న వ్యక్తులను వర్గీకరిస్తామని మరియు వారి పట్ల మన ప్రవర్తన ఈ వర్గీకరణ మీద ఆధారపడి ఉంటుందని సూచిస్తుంది. ఆసక్తికరమైన విషయమేమిటంటే మనకు స్నేహితుడు మరొక వ్యక్తికి శత్రువు కావచ్చు; మన స్నేహితుడు రేపు మనకు శత్రువు కావచ్చు. అంటే ఈ వర్గీకరణలన్నీ సందర్భోచితమైనవి లేదా పక్షపాతంతో ఉంటాయని సూచిస్తుంది. అందువల్ల, ఈ వర్గీకరణలను, విభజనలను వదిలివేసి వాటిని సమతుల్యముగా చూడాలని శ్రీకృష్ణుడు సూచిస్తున్నారు.
విషయాలు, వ్యక్తులు మరియు సంబంధాల యొక్క విషయములో సందేశం ఏమిటంటే వ్యక్తులు మరియు సంబంధాలను వినియోగ వస్తువులుగా పరిగణించకూడదు. తెగిపోయిన, పాడైపోయిన సంబంధాలను పరిశీలించి చుస్తే, తగిన గౌరవం ఇవ్వకుండా వారిని ఒక వినియోగ వస్తువుగా వాడుకున్నారనేదే ఈ సంబంధాలలో చేదు అనుభవాలను పొందిన వారి బాధ.
"అతిగా తినేవాడికి, ఏ మాత్రమూ తినని వాడికి, అతిగా నిద్రించువాడికి, ఎల్లప్పుడూ మేల్కొని ఉన్నవారికి ఈ యోగసిద్ధి కలగదు" అని శ్రీకృష్ణుడు చెప్పారు (6.16). ఇక్కడ తినడం అనేది పంచేంద్రియాల వినియోగమునకు ఉదాహరణగా తీసుకోవచ్చు. మనము మనస్సును, నాలుకను సంతృప్తిపరచడానికి తింటాము కాని ఆరోగ్యానికి దారితీసే శరీర అవసరాలకు అనుగుణంగా కాదని బాగా విదితమైనది. దీని వలన మనకు స్థూలకాయం వస్తుంది మరియు అనారోగ్యానికి లోనవుతాము. మన దుర్భాష మరియు ఇతర ఇంద్రియాలను అతిగా ఉపయోగించడం అనేక దుస్థితిలకు దారి తీస్తుంది. అందుకే శ్రీకృష్ణుడు ఇంద్రియాల వినియోగంలో సమతుల్యత గురించి బోధించారు.
ज्ञान के बारे में अर्जुन के अनुरोध के जवाब में श्रीकृष्ण कहते हैं, "विनम्रता, दम्भहीनता, अहिंसा, क्षमा, मन-वाणी आदि की सरलता, गुरु की सेवा,पवित्रता, दृढ़ता, आत्मसंयम (13.8); इंद्रिय विषयों के प्रति वैराग्य, अहंकार रहित होना, जन्म, रोग, बुढ़ापा और मृत्यु के दोषों की अनुभूति (13.9); अनासक्ति, सन्तान, स्त्री, घर या धन आदि वस्तुओं की ममता से मुक्ति, प्रिय और अप्रिय प्राप्ति में सदा ही शाश्वत समभाव, ज्ञान है" (13.10)।
श्रीकृष्ण आगे कहते हैं, "मेरे प्रति निरन्तर अनन्य भक्ति, एकान्त स्थानों पर रहने की इच्छा, लौकिक समुदाय के प्रति विमुखता (13.11); आध्यात्मिक ज्ञान में स्थिरता और परम सत्य की तात्त्विक खोज, इन सबको मैं ज्ञान घोषित करता हूँ और जो भी इसके विपरीत है वह अज्ञान है” (13.12)। इनमें से कुछ स्वयं के बारे में हैं और बाकी बाहरी दुनिया के साथ हमारे संबंधों के बारे में हैं।
'मेरे जैसा कोई नहीं' की मनोदशा से ग्रसित कोई भी व्यक्ति विनम्रता को कमजोरी मानने लगता है। लेकिन श्रीकृष्ण विनम्रता को ज्ञान का प्रारंभिक बिंदु मानते हैं। विनम्रता न तो कमजोरी है और न ही लाचारी, बल्कि सर्वशक्तिमान अस्तित्व के साथ तालमेल बिठाने का एक तरीका है। अहंकार का अभाव ही विनम्रता है।
स्वयं के साथ संतुष्ट रहना ज्ञान का एक अन्य पहलू है। ऐसा तब होता है जब हम अपने आप में केंद्रित होते हैं, जहां हमें इन्द्रिय विषयों की आवश्यकता नहीं होती है। जब इंद्रिय विषयों के प्रति वैराग्य हो जाता है, तो व्यक्ति स्वयं में केंद्रित रहता है, भले ही वह इंद्रिय विषयों या लोगों की भीड़ में विचर रहा हो।
प्रिय और अप्रिय परिस्थितियों के प्रति समभाव ज्ञान का एक और पहलू है। अनुकूल परिस्थितियों में हम प्रसन्न होते हैं और कठिन परिस्थितियों का सामना होने पर तनावग्रस्त हो जाते हैं। समभाव प्राप्त करना ही उन दोनों को एक समान मानने का एकमात्र तरीका है। ऐसी अवस्था में बाहरी परिस्थितियाँ हमें प्रभावित करने की अपनी क्षमता खो देती हैं। ज्ञान के इन बीस पहलुओं को आत्मसात करना आध्यात्मिक ज्ञान को ‘जानने’ से आध्यात्मिक ‘होने’ की यात्रा है।
भगवद गीता के ग्यारहवें अध्याय के अंत में (11.55), श्रीकृष्ण कहते हैं कि उन तक केवल भक्ति के माध्यम से ही पहुंचा जा सकता है। इस प्रकार, भगवद गीता के श्रद्धेय बारहवें अध्याय को भक्ति योग कहा जाता है। श्रीकृष्ण के विश्वरूप को देखकर अर्जुन भयभीत हो गए और उन्होंने पूछा, "आपके साकार रूप पर दृढ़तापूर्वक निरन्तर समर्पित होने वालों को या आपके अव्यक्त निराकार रूप की आराधना करने वालों में से आप किसे योग में उत्तम मानते हैं" (12.1)? संयोगवश, सभी संस्कृतियों की जड़ें इसी प्रश्न में हैं।
गीता में तीन व्यापक मार्ग दिये गये हैं। मन उन्मुख लोगों के लिए कर्म, बुद्धि उन्मुख के लिए सांख्य (जागरूकता) और हृदय उन्मुख के लिए भक्ति। ये अलग-अलग रास्ते नहीं हैं और उनके बीच बहुत सी आदान-प्रदान होती है और यही इस अध्याय में दिखता है। श्रीकृष्ण ने पहले एक पदानुक्रम दिया और कहा कि मन इंद्रियों से श्रेष्ठ है; बुद्धि मन से श्रेष्ठ है और बुद्धि से भी श्रेष्ठ आत्मा है (3.42)। श्रीकृष्ण ने यह भी कहा कि उन्हें केवल समर्पण के द्वारा न कि वेदों, अनुष्ठानों या दान के जरिये प्राप्त किया जा सकता है (11.53)। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि कोई व्यक्ति या तो कर्म-सांख्य का मार्ग जो लंबा है या समर्पण का एक छोटा मार्ग जो बहुत दुर्लभ है, के माध्यम से भक्ति तक पहुंचता है। भक्ति परमात्मा तक पहुंचने की अंतिम सीढ़ी है।
भक्ति हमारी इच्छाओं को पूरा करने या कठिनाइयों को दूर करने के लिए हमारे द्वारा किए जाने वाले प्रार्थनाओं, अनुष्ठानों या जप से परे है। यह एक साथ निमित्तमात्र और श्रद्धावान दोनों होना है। जब अनुकूल और प्रतिकूल घटनाएं हमारे माध्यम से घटित होती हैं, यह एहसास करना है कि हम ईश्वर के हाथों के केवल एक उपकरण हैं अर्थात निमित्तमात्र हैं। हमारे जीवन में हमें जो कुछ भी मिलता है या जो कुछ भी होता है उसे परमात्मा के आशीर्वाद के रूप में स्वीकार करना ही श्रद्धा है, चाहे वह हमें पसंद हो या नहीं। यह बिना शर्त प्यार है जिसे श्रीकृष्ण ने स्वयं को दूसरों में और दूसरों को स्वयं में देखने और उन्हें हर जगह देखने की अवस्था के रूप में वर्णित किया है (6.29)।
मानसिक अस्पताल में काम करने वाला एक डॉक्टर अपने एक दोस्त को अस्पताल दिखाने ले गया। उसके दोस्त ने एक कमरे में एक आदमी को एक महिला की तस्वीर के साथ देखा और डॉक्टर ने बताया कि वह आदमी उस महिला से प्यार करता था और जब वह उससे शादी नहीं कर सका तो मानसिक रूप से अस्थिर हो गया। अगले कमरे में, उसी महिला की तस्वीर के साथ एक और आदमी था और डॉक्टर ने बताया कि उससे शादी करने के बाद वह मानसिक रूप से अस्थिर हो गया था। यह विडम्बना से भरी हुई कहानी बताती है कि पूर्ण और अपूर्ण इच्छाओं के एक जैसे विनाशकारी परिणाम कैसे हो सकते हैं।
अर्जुन के साथ भी यही हुआ। भगवद गीता के ग्यारहवें अध्याय 'विश्वरूप दर्शन योग' के प्रारंभ में, वह श्रीकृष्ण का विश्वरूप देखना चाहते थे। लेकिन जब उन्होंने श्रीकृष्ण के विश्वरूप को देखा तो वह भयभीत हो गए। चिंतित अर्जुन अब श्रीकृष्ण को उनके मानव रूप में देखने की इच्छा प्रकट करते हैं। इसी तरह, जीवन में हमारा लक्ष्य समय के साथ बदलता रहता है।
श्रीकृष्ण अपना विश्वरूप दिखाते हैं जिसमें अर्जुन देखते हैं कि उसके सभी शत्रु मृत्यु के मुंह में प्रवेश कर रहे हैं। श्रीकृष्ण उन्हें बताते हैं कि अर्जुन सिर्फ एक निमित्त मात्र (उनके हाथ में एक उपकरण) हैं और उनको बिना तनाव के लड़ने के लिए कहते हैं। अंत में, श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस रूप को वेद,दान या अनुष्ठान के माध्यम से नहीं देखा जा सकता है, बल्कि केवल भक्ति के माध्यम से ही कोई व्यक्ति उनतक पहुँच सकता है।
अज्ञानी स्तर पर, व्यक्ति भौतिक संपत्ति के संचय का सहारा लेता है। जब जागरूकता की किरण आती है, तो व्यक्ति पुण्य जैसा कुछ उच्च प्राप्त करने के लिए दान करना शुरू कर देता है, जो आमतौर पर मृत्यु के बाद स्वर्ग जाने के लिए होता है। जब श्रीकृष्ण कहते हैं कि दान मदद नहीं कर सकता, तो वे दान, वेद, अनुष्ठान से आगे बढ़ने और भक्ति के माध्यम से उन तक पहुंचने की सलाह दे रहे हैं।
यह अगले स्तर तक पहुंचने के लिए एक सीढ़ी की तरह है। दान, वेद और कर्मकाण्ड सीढ़ी के चरण हैं, पर मंजिल नहीं। उन तक पहुंचने के लिए अंतिम चरण के रूप में भक्ति से गुजरना पड़ता है।
श्रीकृष्ण कहते हैं, "मेरे इस विराट रूप को तुमसे पहले किसी ने नहीं देखा है (11.47)। मेरा यह विराट रूप न तो वेदों के अध्ययन से, न यज्ञों से, न दान से,न कर्मकाण्डों से और न ही कठोर तपस्या से देखा जा सकता है (11.48)। भयमुक्त और प्रसन्नचित्त होकर मेरे इस पुरुषोत्तम रूप को फिर से देखो" (11.49)।
श्रीकृष्ण अपने मानव स्वरूप में आ जाते हैं (11.50) और अर्जुन का चित्त स्थिर हो जाता है (11.51)। श्रीकृष्ण कहते हैं, "मेरे इस रूप को देख पाना अति दुर्लभ है। स्वर्ग के देवता भी इस रूप के दर्शन की आकांक्षा करते हैं (11.52)। मेरे इस रूप को न तो वेदों के अध्ययन, न ही तपस्या, दान और यज्ञों जैसे साधनों द्वारा देखा जा सकता है" (11.53)।
हमारी सामान्य धारणा यह है कि दान से हमें पुण्य मिलता है। लेकिन श्रीकृष्ण कहते हैं कि दान हमें उनके विश्वरूप को देखने में मदद नहीं कर सकता। जब दान अहंकार से प्रेरित होता है, तो यह पुण्य, नाम, दिल की तसल्ली आदि पाने के लिए अपना कुछ देने का व्यवसाय बन जाता है। यह व्यापार हमें परमात्मा तक नहीं ले जा सकता क्योंकि उन्हें खरीदा नहीं जा सकता।
तुरंत, श्रीकृष्ण एक सकारात्मक मार्ग सुझाते हुए कहते हैं, "लेकिन केवल एकनिष्ठ भक्ति से मुझे इस तरह देखा जा सकता है (11.54) और जो मेरे प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं, मुझे सर्वोच्च मानकर वह मेरे प्रति समर्पित हैं, आसक्ति से मुक्त हैं, किसी भी प्राणी से द्वेष नहीं रखते हैं, ऐसे भक्त निश्चित रूप से मुझे प्राप्त करते हैं" (11.55)।
आसक्ति से मुक्त होने का अर्थ विरक्ति नहीं है। यह न तो घृणा है और न ही लालसा। पहले भी, श्रीकृष्ण ने हमें घृणा छोड़ने की सलाह दी थी न कि कर्म। कुंजी किसी भी प्राणी के प्रति शत्रुता छोड़ना है। घृणा, अहंकार की तरह है, और दोनों के कई आकार, चेहरे, रूप और अभिव्यक्तियाँ होती हैं जिसके कारण इन्हें पहचानना मुश्किल हो जाता है। घृणा एक जहर की तरह है, जिसे हम ढ़ोते हैं, जो अंततः हमें चोट और क्षति पहुंचाएगा। दूसरे शब्दों में, दुःख की स्थिति से आनंद की ओर बढ़ने के लिए घृणा का त्याग करना आवश्यक है।
अर्जुन ने भय से कांपते हुए अपने दोनों हाथों को जोड़कर श्रीकृष्ण को नमस्कार किया और इस प्रकार कहा (11.35), "संसार आपकी स्तुति में प्रसन्न और आनंदित है, राक्षस भयभीत होकर भाग रहे हैं और सिद्ध पुरुष आपको नमन कर रहे हैं (11.36) चूँकि आप ब्रह्मा की उत्पत्ति के कारण हैं, देवों के देव हैं, ब्रह्मांड के निवास हैं। आप अविनाशी हैं, व्यक्त और अव्यक्त से परे हैं, आप सर्वोच्च हैं (11.37)। आप ही सर्वज्ञाता और जो कुछ भी जानने योग्य है वह सब आप ही हो। आप ही परम धाम हो। हे अनंत रूपों के स्वामी! केवल आप ही समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त हो" (11.38)।
अर्जुन कहते हैं कि आप ही वायु, यम (मृत्यु के देवता), अग्नि और वरुण (समुद्र देवता) हैं (11.39), और बार-बार नमस्कार करते हैं (11.40)। वह आगे कहते हैं, "आप समस्त चर-अचर के स्वामी और समस्त ब्रह्माण्डों के जनक हैं। तीनों लोकों में आपके समतुल्य कोई नहीं है, और न आपसे बढ़कर कोई है" (11.43)।
अर्जुन झुककर, उनको साष्टांग प्रणाम करते हुए उनकी कृपा चाहते हैं,जैसे एक पुत्र अपने पिता से, एक प्रेमिका अपने प्रेमी से और एक मित्र दूसरे मित्र से कृपा चाहते हैं (11.44)। जो पहले नहीं देखा था (विश्वरूप) उसे देखकर अर्जुन प्रसन्न होता है और साथ ही, उसका मन भय से भर जाता है और दया चाहता है (11.45)। वह श्रीकृष्ण को उनके मानव रूप में देखने की प्रार्थना करता है (11.46)।
जबकि अर्जुन ने तीन रिश्तों का उल्लेख किया है; पिता-पुत्र, मित्र-मित्र और प्रेमी-प्रेमिका; किसी भी स्वस्थ रिश्ते के लिए शालीनता की आवश्यकता होती है और सभी संस्कृतियां यही कहती हैं। लंबे समय तक चलने के लिए रिश्तों में शालीनता एक आवश्यक तत्व है और समकालीन साहित्य इस दिशा में हमारा मार्गदर्शन करता है, विशेष रूप से विवाह और परिवार के संदर्भ में। शालीनता रिश्तों में दूसरों को माफ करने की क्षमता है, यह जानकर कि हम भी वैसी गलतियाँ कर सकते हैं और दूसरों के प्रति करुणा रखने की बात है। यह करुणा का भाव तब आता है जब समत्व को गहराई से आत्मसात किया जाता है, जब हम प्रशंसा और आलोचना के द्वंद्व को पार कर जाते हैं, जब हम स्वयं को दूसरों में और दूसरों को स्वयं में देखते हैं जो हमें भिन्नताओं को अपनाने में मदद करता है।
विभिन्न संस्कृतियाँ परमात्मा का वर्णन अलग-अलग तरीके से करती हैं। हमारी आस्था के आधार पर परमात्मा का स्वरूप बदलता रहता है। अगर परमात्मा हमारे सामने किसी अलग आकार या रूप में प्रकट होते हैं तो उन्हें पहचान पाना कठिन होगा।
इसी तरह अर्जुन शुरू से श्रीकृष्ण के साथ मित्र की तरह व्यवहार कर रहे थे। जब तक अर्जुन ने विश्वरूप को नहीं देखा तब तक वह नहीं पहचान सके कि श्रीकृष्ण परमात्मा हैं। वह क्षमा मांगते हुए कहते हैं कि "आपको अपना मित्र मानते हुए मैंने धृष्टतापूर्वक आपको हे कृष्ण, हे यादव, हे प्रिय मित्र कहकर संबोधित किया क्योंकि मुझे आपकी महिमा का ज्ञान नहीं था। उपेक्षित भाव से और प्रेमवश होकर यदि उपहास करते हुए मैंने कई बार खेलते हुए,विश्राम करते हुए, बैठते हुए, खाते हुए, अकेले में या अन्य लोगों के समक्ष आपका कभी अनादर किया हो तो उन सब अपराधों के लिए मैं आपसे क्षमा याचना करता हूँ" (11.41-11.42)।
अर्जुन की तरह हमारे साथ भी ऐसा ही होगा। जब हम समर्पण की उस शाश्वत अवस्था तक पहुँचते हैं, तो हमें एहसास होता है कि हर कोई उसी परमात्मा का हिस्सा है। हरेक व्यक्ति, पशु या वृक्ष परमात्मा बन जायेंगे,चाहे वे इसके बारे में जानते हों अथवा नहीं। उनके साथ हमारा पिछला व्यवहार भद्दा लगेगा और अर्जुन की तरह माफी मांगने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। कई संस्कृतियां स्वतंत्रता की इस शाश्वत स्थिति को प्राप्त करने के लिए क्षमा मांगने, कृतज्ञता व्यक्त करने और साष्टांग प्रणाम करने का उपदेश देती हैं और अभ्यास कराती हैं।
श्रीमद्भागवत के ग्यारहवें अध्याय में श्रीकृष्ण और उनके बचपन के मित्र उद्धव के बीच एक लंबी वार्तालाप है। बातचीत के अंत में, उद्धव मोक्ष प्राप्त करने के लिए एक आसान मार्ग बताने का अनुरोध करते हैं। श्रीकृष्ण उत्तर देते हैं,‘एक चोर, गधे या शत्रु को उसी तरह साष्टांग प्रणाम करो जैसे तुम मुझे साष्टांग प्रणाम करते हो’। यह मार्ग समझने में बहुत आसान है लेकिन इसका आचरण करना बहुत कठिन है। यह वैसा ही है जब श्रीकृष्ण ने कहा था 'सभी प्राणियों को स्वयं में महसूस करो; सभी प्राणियों में स्वयं को देखो और हर जगह उन्ही (परमात्मा) को देखो' (6.29) जिसे घृणा को त्यागकर आसानी से प्राप्त किया जा सकता है (5.3)।
श्रीकृष्ण अर्जुन को भविष्य की एक झलक दिखाते हैं जहां योद्धा मौत के मुंह में प्रवेश कर रहे हैं और कहते हैं कि अर्जुन केवल एक निमित्तमात्र है। श्रीकृष्ण आगे स्पष्ट करते हैं कि अर्जुन के बिना भी, उनमें से कोई भी जीवित नहीं रहेगा और इसलिए उसे तनाव मुक्त होकर लड़ना चाहिए।
'इंद्रिय केंद्रित' अहंकार से 'परमात्मा केंद्रित' निमित्तमात्र तक की यात्रा कठिन है। स्वाभाविक प्रश्न हैं कि इसे कैसे हासिल किया जाए और इसकी प्रगति के सूचक क्या हैं।
निमित्तमात्र एक आंतरिक अवस्था है न कि कोई कौशल जिसमें महारत हासिल की जा सके। इसे प्राप्त करने का एक आसान तरीका मृत्यु को सदैव याद रखना है, जिसे 'मेमेंटो मोरी' कहा जाता है। दूसरे, दर्दनाक (असहाय और दयनीय) परिस्थितियां हमें निमित्तमात्र की झलक तुरंत दे सकती हैं। जागरूकता के साथ सुखद परिस्थितियां भी हमें लंबे समय तक चलने वाली निमित्तमात्र की झलक दे सकती हैं।
श्रीकृष्ण ने पहले संकेत दिया था कि वह 'तेज' हैं (10.41) और यह एहसास करना है कि निमित्तमात्र की आंतरिक स्थिति बाहरी दुनिया में तेज के रूप में प्रकट होती है। यह स्थिति हमें पूर्वाग्रहों, विश्वास प्रणालियों या निर्णयों के बिना चीजों को स्पष्ट रूप से देखने और अतीत के बोझ या भविष्य अथवा दूसरों से अपेक्षाओं के बिना जीने में मदद करती है।
'क्या हमारी अनुपस्थिति से इस संसार पर कोई फर्क पड़ेगा'? यदि हम इस प्रश्न का उत्तर बार-बार, स्पष्ट रूप से और दृढ़ता से 'नहीं' में पाते हैं, तो हम निश्चित रूप से निमित्तमात्र की ओर बढ़ रहे हैं।
यह इस बारे में नहीं है कि हम क्या करते हैं या हम क्या चुनते हैं, भले ही वह कितना ही महान क्यों न प्रतीत हो। यह इस बारे में है कि हमारे द्वारा किए गए कर्म या चुनाव कितना कर्मबंधन उत्पन्न करते हैं। यह कर्मबंधन निमित्त-मात्र की ओर हमारी यात्रा में प्रगति को निर्धारित करता है।
ਬ੍ਰਹਮੰਡ ਦੇ ਨਿਰਮਾਣ ਦੇ ਸ਼ੁਰੂਆਤੀ ਦੌਰ ਵਿੱਚ ਇਹ ਸਿਰਫ ਊਰਜਾ ਸੀ ਅਤੇਇਸ ਨੇ ਬਾਦ ਵਿੱਚ ਪਦਾਰਥ ਦਾ ਰੂਪ ਧਾਰਨ ਕੀਤਾ। ਵਿਗਿਆਨਕ ਰੂਪ ਵਿੱਚ ਇਹ ਸਵੀਕਾਰ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਕਿ ਬ੍ਰਹਮੰਡ ਵਿੱਚ ਤਾਪਮਾਨ, ਘਣਤਾ ਅਤੇ ਮੈਟਰ-ਐਂਟੀਮੈਟਰ ਦੇ ਅਨੁਪਾਤ ਵਿੱਚ ਸੂਖਮ (ਕਵਾਂਟਮ) ਭਿੰਨਤਾ ਸੀ ਅਤੇ ਇਨ੍ਹਾਂ ਭਿੰਨਤਾਵਾਂ ਦਾ ਕੋਈ ਵਿਗਿਆਨਕ ਕਾਰਨ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਇਹ ਪ੍ਰਸਥਿਤੀਆਂ ਹੀ ਪਦਾਰਥ ਦੇ ਨਿਰਮਾਣ ਲਈ ਜ਼ਿੰਮੇਵਾਰ ਹਨ ਅਤੇ ਵਿਗਿਆਨ ਇਸ ਗੱਲ ਨਾਲ ਸਹਿਮਤ ਹੈ ਕਿ ਅੱਜ ਅਸੀਂ ਆਪਣੇ ਚਾਰੇ ਪਾਸੇ ਜੋ ਵਿੰਭਨਤਾਵਾਂ ਵੇਖਦੇ ਹਾਂ, ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਬਣਾਉਣ ਲਈ ਭਗਵਾਨ ਪਾਸਾ (ਚੌਪੜ) ਖੇਡ੍ਹਦੇ ਹਨ।
ਇਸ ਸੰਬੰਧ ਵਿੱਚ ਸ੍ਰੀ ਕਿ੍ਰਸ਼ਨ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ ਕਿ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਨਿਮਨ (ਹੇਠਲੀ) ਪ੍ਰਕਿ੍ਰਤੀ ਅਸ਼ਟਾਂਗੀ (ਅੱਠ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦੀ) ਹੈ। ਅੱਗ, ਪਿ੍ਰਥਵੀ, ਜਲ, ਵਾਯੂ ਅਤੇ ਆਕਾਸ਼ ਭੌਤਿਕ (ਪਦਾਰਥਕ) ਸੰਸਾਰ ਲਈ ਹਨ ਅਤੇ ਮਨ, ਬੁੱਧੀ ਤੇ ਹੰਕਾਰ ਜੀਵਾਂ ਲਈ ਹਨ (7.4)। ਅਗਨੀ ਦਾ ਅਰਥ ਉਸ ਊਰਜਾ ਤੋਂ ਹੈ ਜੋ ਆਦਿ ਕਾਲ ਤੋਂ ਮੌਜੂਦ ਹੈ। ਊਰਜਾ ਪਦਾਰਥ ਵਿੱਚ ਪ੍ਰਵਰਤਿਤ ਹੋਈ ਜਿਸ ਵਿੱਚ ਇਕ ਠੋਸ ਅਵਸਥਾ (ਪਿ੍ਰਥਵੀ) ਤਰਲ ਅਵਸਥਾ (ਜਲ) ਅਤੇ ਗੈਸ-ਅਵਸਥਾ (ਹਵਾ) ਹੈ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਸਾਰਿਆ ਨੂੰ ਰੱਖਣ ਲਈ ਜਗ੍ਹਾ ਜਾਂ ਆਕਾਸ਼ ਦੀ ਲੋੜ ਸੀ।
ਜੀਵਾਂ ਦੇ ਮਾਮਲੇ ਵਿੱਚ, ਜੀਵਤ ਰਹਿਣ ਲਈ, ਉਨ੍ਹਾਂ ਵਿੱਚ ਇਕ ਭੇਦ ਕਰਨ ਵਾਲੀ ਪ੍ਰਣਾਲੀ ਦੀ ਲੋੜ ਹੰੁਦੀ ਹੈ। ਮਨ, ਸੋਚ ਦਾ ਬੁਨਿਆਦੀ ਪੱਧਰ ਹੈ (ਪ੍ਰਣਾਲੀ-1 ਤੇਜ਼ ਤੇ ਅੰਤਰ ਗਿਆਨ ਦੁਆਰਾ ਸਾਖਿਅਤ) ਅਤੇ ਬੁੱਧੀ ਉੱਚੇ ਪੱਧਰ ਦੀ ਸੋਚ ਹੈ (ਪ੍ਰਣਾਲੀ-2, ਧੀਮੀ ਅਤੇ ਚਿੰਤਨਸ਼ੀਲ)। ਅਹੰਕਾਰ, ਆਖਰੀ ਰੁਕਾਵਟ ਹੈ, ਜਿਸ ਨੂੰ ਸਾਨੂੰ ਪ੍ਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਉੱਚ ਪ੍ਰਕਿਰਤੀ ਤੱਕ ਪੁੱਜਣ ਲਈ ਪਾਰ ਕਰਨਾ ਹੈ। ਸ੍ਰੀ ਕਿ੍ਰਸ਼ਨ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ ਕਿ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਉੱਚ ਪ੍ਰਕਿਰਤੀ ਜੀਵਨ ਤੱਤ ਹੈ ਜੋ ਬ੍ਰਹਮੰਡ ਨੂੰ ਸਹਾਰਾ ਦਿੰਦੀ ਹੈ (7.5), ਜਿਵੇਂ ਇਕ ਅਦਿੱਖ ਸੂਤਰ ਮਣਕਿਆਂ ਨੂੰ ਬੰਨ੍ਹ ਕੇ ਰੱਖਦਾ ਹੈ (7.7)।
ਸ੍ਰੀ ਕਿ੍ਰਸ਼ਨ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ, ‘‘ਹਜ਼ਾਰਾਂ ਮਨੁੱਖਾਂ ਵਿਚੋਂ ਕੋਈ ਇੱਕ ਹੀ ਮੇਰੀ ਪ੍ਰਾਪਤੀਲਈ ਜਤਨ ਕਰਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਜਤਨ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਯੋਗੀਆਂ ਵਿਚੋਂ ਵੀ ਕੋਈ ਇੱਕ ਅੱਧਾ ਹੀ ਮੇਰੇ ਯਥਾਰਥ ਨੂੰ ਪਹੰੁਚਦਾ ਹੈ’’ (7.3)। ਇਸ ਦਾ ਅਰਥ ਇਹ ਹੈ ਕਿ ਹੰਕਾਰ ਦੀ ਰੁਕਾਵਟ ਨੂੰ ਪਾਰ ਕਰਨਾ ਇਕ ਔਖਾ ਕਾਰਜ ਹੈ, ਅਤੇ ਇਥੇ ਉਸੇ ਦਾ ਸੰਕੇਤ ਦਿੱਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ।
ਇਸ ਨੂੰ ਵੇਖਣ ਦਾ ਇਕ ਹੋਰ ਢੰਗ ਇਹ ਹੈ ਕਿ ਅਸੀਂ 13.8 ਅਰਬ ਸਾਲਾਂ ਦੀਕਰਮਗਤ ਉੱਨਤੀ ਦੀ ਯਾਤਰਾ ਦੌਰਾਨ ਜਾਣੇ-ਅਣਜਾਣੇ ਵਿੱਚ ਬਹੁਤ ਸਾਰੀ ਧੂੜ-ਮਿੱਟੀ ਇਕੱਠੀ ਕਰ ਲਈ। ਸਾਡਾ ਪਹਿਲਾ ਕਦਮ ਇਸ ਧੂੜ-ਮਿੱਟੀ ਦੇ ਬਾਰੇ ਵਿੱਚ ਜਾਗਰੂਕ ਹੋਣਾ ਹੈ ਜੋ ਹੰਕਾਰ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿੱਚ ਪ੍ਰਗਟ ਹੰੁਦੀ ਹੈ, ਅਤੇ ਦੂਜਾ ਕਦਮ ਇਸ ਤੋਂ ਛੁਟਕਾਰਾ ਪਾਉਣਾ ਹੈ।
अर्जुन देखता है कि सभी योद्धा श्रीकृष्ण के विश्वरूप के दांतों से चूर्ण हो रहे हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये सभी योद्धा मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं और तुम केवल निमित्त-मात्र हो (11.33) और इसलिए व्यथित महसूस किए बिना युद्ध करो (11.34)।
भले ही अर्जुन के शत्रु उनके द्वारा पहले ही मारे जा चुके हों, फिर भी श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध छोड़ने के लिए नहीं कहा। इसके बजाय, वह उसे बिना तनाव के लड़ने के लिए कहते हैं। स्पष्ट संकेत यह है कि निमित्त-मात्र का अर्थ निष्क्रियता नहीं है। निष्क्रियता एक किस्म का दमन है जो आंतरिक तनाव पैदा करता है। यदि अर्जुन शारीरिक रूप से भी युद्ध छोड़ देते तो भी युद्ध नहीं रुकता बल्कि वे जहां भी जाते, मानसिक रूप से युद्ध का बोझ ढोते। दूसरी ओर, श्रीकृष्ण मानसिक रूप से इस बोझ को त्यागने और हाथ में जो कर्म है उसे परमात्मा के साधन के रूप में करने का संकेत देते हैं। यह सक्रिय स्वीकृति हमारे दैनिक जीवन के कभी न समाप्त होने वाले तनाव को कम करने का सबसे अच्छा तरीका है।
उदाहरण के लिए, एक बिजली का तार बिजली का संचालन करके एक बल्ब को सक्रिय करता है जो प्रकाश देता है। तार के सोचने के दो तरीके हो सकते हैं। एक तो यह कि अहंकार से भर जाए क्योंकि यह बल्ब को बिजली दे रहा है। दूसरा वह ऐसा भी सोच सकता है कि वह सिर्फ एक निमित्त-मात्र है जहां टरबाइन द्वारा बिजली उत्पन्न की जाती है और बल्ब प्रकाश दे रहा है। यह सच है कि जब वोल्टेज में अंतर होता है, तो तार के पास बिजली प्रवाहित करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता है। इसी प्रकार, वोल्टेज में अंतर की तरह, तीन गुण हमारे कार्यों के लिए जिम्मेदार हैं। निमित्त-मात्र वह है जो जानता है कि तीन गुण ही वास्तविक कर्ता हैं।
अपने आप को निमित्त-मात्र के रूप में महसूस करने के बजाय, परमात्मा को निमित्त-मात्र या एक उपकरण बनाने की हमारी सामान्य प्रवृत्ति होती है। हम उम्मीद करते हैं कि हमारी इच्छाओं को पूरा करने के लिये परमात्मा उपकरण बनकर हमारा काम करें। मुख्य बात यह महसूस करना है कि हम इस शक्तिशाली रचना के अरबों उपकरणों में से एक हैं।