
अध्याय 3 – कर्म योग (निष्काम कर्म का योग)1. अर्जुन का प्रश्न
अर्जुन पूछते हैं – “हे कृष्ण! यदि ज्ञान (सांख्य) को श्रेष्ठ मानते हैं, तो मुझे युद्ध (कर्म) के लिए क्यों प्रेरित करते हैं?”
यहाँ अर्जुन का भ्रम है कि क्या केवल ज्ञान ही मोक्ष का मार्ग है या कर्म भी आवश्यक है।
कृष्ण स्पष्ट करते हैं:
केवल कर्म-त्याग से मुक्ति नहीं मिलती।
हर कोई कर्म करने को बाध्य है, क्योंकि प्रकृति हमें कर्म करने के लिए प्रेरित करती है।
बिना कर्म किए जीवन असंभव है—even शरीर का निर्वाह भी कर्म से ही होता है।
मनुष्य को अपना कर्तव्य करना चाहिए, लेकिन फल की आसक्ति छोड़कर।
कर्म न करने पर समाज में अव्यवस्था फैल जाएगी।
श्रेष्ठ पुरुष को चाहिए कि वह स्वयं भी कर्म करे और दूसरों को प्रेरित करे।
कर्म को यज्ञ भाव से करना चाहिए—अर्थात ईश्वर के लिए समर्पित भाव से।
यज्ञ से देवता प्रसन्न होते हैं, और प्रकृति संतुलित रहती है।
स्वार्थी कर्म बंधन लाते हैं, जबकि यज्ञभाव कर्म मुक्ति दिलाते हैं।
मनुष्य के पतन का सबसे बड़ा कारण काम (अत्यधिक इच्छा) और उससे उत्पन्न क्रोध है।
यह आत्मा का शत्रु है, इसलिए इसे वश में करना आवश्यक है।
इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण रखकर ही व्यक्ति इच्छाओं को जीत सकता है।
केवल ज्ञान या केवल कर्म पर्याप्त नहीं, बल्कि निष्काम भाव से कर्म ही सर्वोच्च मार्ग है।
कर्म करते हुए भी मनुष्य ईश्वर को समर्पित भाव से रहे तो वह बंधन से मुक्त हो जाता है।
इच्छाओं और क्रोध पर नियंत्रण ही सच्चे योग का आधार है।
कर्म योग हमें यह सिखाता है कि जीवन का हर कार्य हमें कर्तव्यभाव और समर्पण के साथ करना चाहिए। जब हम फल की आसक्ति छोड़कर कर्म करते हैं, तो वही कर्म योग है—और यही मुक्ति का मार्ग है।
2. कृष्ण का उत्तर3. कर्म का महत्व4. यज्ञ भावना5. काम और क्रोधमुख्य संदेशसारांश