
स्थिति:
महाभारत युद्ध शुरू होने वाला है। दोनों सेनाएँ कुरुक्षेत्र के मैदान में आमने-सामने खड़ी हैं। अर्जुन अपने रथ पर खड़े होकर जब युद्धभूमि को देखते हैं, तो उन्हें अपने ही गुरु, बंधु, कुटुंब और मित्र शत्रु पक्ष में दिखाई देते हैं।
क्या हुआ:
अर्जुन अपने धनुष को थामे खड़े हैं, परंतु उनका हृदय करुणा और मोह से भर जाता है।
वे सोचते हैं कि जिनके लिए युद्ध करना है, यदि वही लोग मारे गए तो राज्य, सुख और विजय का क्या मूल्य होगा?
उन्हें भय है कि इस युद्ध में परिवार और कुल-परंपरा नष्ट हो जाएगी।
अर्जुन के भीतर गहरा द्वंद्व (conflict) पैदा होता है—कर्तव्य (धर्म) और करुणा (भावना) के बीच।
अर्जुन के भाव:
शरीर कांपना, मुख सूखना, धनुष हाथ से छूट जाना।
युद्ध की इच्छा समाप्त हो जाना।
मन में शोक, मोह और दुविधा का छा जाना।
अंततः वे कहते हैं: “हे कृष्ण! मैं युद्ध नहीं करूंगा।”
मुख्य संदेश:
यह अध्याय हमें दिखाता है कि जीवन में जब मोह, करुणा और व्यक्तिगत भावनाएँ कर्तव्य के मार्ग में बाधा बनती हैं, तो मनुष्य भ्रमित हो जाता है।
अर्जुन विषाद योग केवल अर्जुन की समस्या नहीं है, बल्कि हर इंसान के जीवन का दर्पण है—जब हम किसी कठिन निर्णय के सामने खड़े होते हैं, तो मन डगमगाने लगता है।
यही “विषाद” (शोक और दुविधा) आगे चलकर “योग” (ज्ञान और समाधान) का मार्ग खोलता है।
सार:
गीता की शुरुआत शोक और दुविधा से होती है, क्योंकि बिना समस्या के समाधान की आवश्यकता नहीं होती। अर्जुन का विषाद ही आगे चलकर भगवान श्रीकृष्ण के उपदेशों का कारण बनता है।