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श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप
Anant Ghosh
128 episodes
2 days ago
श्रीमद्भगवद्गीता अध्ययन
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श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 4.33
श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप
7 minutes 26 seconds
4 years ago
श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 4.33
श्रेयान्द्रव्यमयाद् यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप | सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते || ३३ || श्रेयान्– श्रेष्ठ; द्रव्य-मयात्– सम्पत्ति के; यज्ञात्– यज्ञ से; ज्ञान-यज्ञः– ज्ञानयज्ञ; परन्तप– हे शत्रुओं को दण्डित करने वाले; सर्वम्– सभी; कर्म– कर्म; अखिलम्– पूर्णतः; पार्थ– हे पृथापुत्र; ज्ञाने– ज्ञान में; परिसमाप्यते– समाप्त होते हैं | हे परंतप! द्रव्ययज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है | हे पार्थ! अन्ततोगत्वा सारे कर्मयज्ञों का अवसान दिव्य ज्ञान में होते है | तात्पर्य : समस्त यज्ञों का यही एक प्रयोजन है कि जीव को पूर्णज्ञान प्राप्त हो जिससे वह भौतिक कष्टों से छुटकारा पाकर अन्त में परमेश्र्वर की दिव्य सेवा कर सके | तो भी इन सारे यज्ञों की विविध क्रियाओं में रहस्य भरा है और मनुष्य को यह रहस्य जान लेना चाहिए | कभी-कभी कर्ता की श्रद्धा के अनुसार यज्ञ विभिन्न रूप धारण कर लेते है | जब यज्ञकर्ता की श्रद्धा दिव्यज्ञान के स्तर तक पहुँच जाती है तो उसे ज्ञानरहित द्रव्ययज्ञ करने वाले से श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि ज्ञान के बिना यज्ञ भौतिक स्तर पर रह जाते हैं और इनसे कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं हो पाता | यथार्थ ज्ञान का अंत कृष्णभावनामृत में होता है जो दिव्यज्ञान की सर्वोच्च अवस्था है | ज्ञान की उन्नति के बिना यज्ञ मात्र भौतिक कर्म बना रहता है | किन्तु जब उसे दिव्यज्ञान के स्तर तक पहुँचा दिया जाता है तो ऐसे सारे कर्म आध्यात्मिक स्तर प्राप्त कर लेते हैं | चेतनाभेद के अनुसार ऐसे यज्ञकर्म कभी-कभी कर्मकाण्ड कहलाते हैं और कभी ज्ञानकाण्ड | यज्ञ वही श्रेष्ठ है, जिसका अन्त ज्ञान में हो |
श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप
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