
|| श्रीज्ञानेश्वरी ||
अध्याय : १ ओवी : २६-३०
का तीर्थें जियें त्रिभुवनीं | तियें घडती समुद्रा ― वगहानीं | ना तरी अमृतरसास्वादनीं | रस सकळ ||२६||
तैसा पुढतपुढती तोचि | मियां अभिवंदिला श्रीगुरुचि | जो अभिलाषित मनोरुचि | पुरविता तो ||२७||
आतां अवधारा कथा गहन | जे सकळां कौतुकां जन्मस्थान | कीं अभिनव उद्यान | विवेकतरूचें ||२८||
ना तरी सर्व सुखाची आदि | जे प्रमेयमहानिधि | नाना नवरस - सुधाब्धि | परिपूर्ण हे ||२९||
कीं परमधाम प्रकट | सर्व विद्यांचें मूळ पीठ | शास्त्रजातां वसौट | अशेषांचें ||30||
ना तरी सकळ धर्मांचें माहेर | सज्जनांचें जिव्हार | लावण्यरत्नभांडार | शारदेंचें ||३१||